बसंत का आगम क्या कहिए…
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बसंत का आगम क्या कहिए,
दिन चमचम रात उजाली है।
नत यौवन-भार से आज धरा,
हुई मद में गजब मतवाली है।
घाम ने अंगों को झुलसाया।
शीत ने कैसा कहर बरपाया।
घनन-घनन जब बदरा बरसे,
नैनों में कजरा टिक न पाया।
बीती अब सब जलन-गलन,
मुख पर मुस्कान निराली है।
पीत परिधान में सज- धज,
दूल्हा बन ऋतुराज आया।
सकुचाई प्रकृति लाज-भरी,
तन- मन में मधुमास छाया।
सजी सेज पर बैठी प्रियतमा,
नयनों में लाज की लाली है।
बंद कलियों ने आँखें खोलीं।
पंचम सुर में कोयल बोली।
पुष्पित पराग मधु रस पीने,
निकल चली भ्रमरों की टोली।
देख रुत अभिसार की आई,
प्रफुल्लित डाली-डाली है।
पतझर में पात झरे जिसके,
उस तरु पर भी अब फूल खिले !
ए कामसखा, कुछ कह तो,
कौन मंत्र अनूठे तूने पढ़े ?
हमने भी मन में सपने पाले,
फिर से नेह-आस लगा ली है।
मथ रहा है मानव-मन को,
पुष्प-वाण से आज मन्मथ।
प्रिय के आगोश में लिपटी,
उन्मत्त प्रिया कामकेलि रत।
दूर कहीं पर एक विरहन,
बस टूट बिखरने वाली है ।
© डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)