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2 Nov 2022 · 1 min read

बदलाव

तेरे शहर में कबूतरों को कोई कोना नहीं नसीब,
हमारे गांव आये मुसाफ़िर को भी रूक के जाना हैं।

ख़ुशी में सब मिल के हंसते हैं गमों में साथ रोते हैं,
कोई भी मर अगर जाये बिना तआलुक के जाना है।

महल मीनार बना सकते थे मगर वो जानते थे ये,
कि तिनका साथ नहीं जाना बिना संदूक जाना है।

अदब कुछ यूं सिखाती थी पुरानी चोखटें हमको,
नज़र ऊंची रखो बेशक मगर अंदर झुक के जाना है।

करोड़ों की ये दुनियां ‘शक्ति’ हजारों रोज है मरते,
मोल अपना बढ़ा प्यारे क्या बिना पहचान जाना है।

✍️ दशरथ रांकावत ‘शक्ति’

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