चाँद और इन्सान
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फलक पर मुस्कुरा,
रहा था चाँद,
अपनी तन्हाई के साथ,
हमने पूछा – ऐ चाँद,
क्यों हो इस कदर उदास?
तुम्हारी इस खामोश तन्हाई,
का कुछ तो होगा राज,
कुछ पल के लिए ही सही,
हमें अपना हमराज बना लो,
अगर न हो कोई ऐतराज,
यह राज हमसे कह डालो।
मुस्कुरा कर चाँद ; एक
फीकी सी हँसी हँस दिया,
बोला – मैं हैरान हूँ,
इन्सान के बदलते रंग – ढंग,
देखकर परेशान हूँ ; रोज ही,
मैं फलक के एक छोर से,
दूसरे छोर तक आता – जाता हूँ,
मुझमें कोई परिवर्तन नहीं आया है।
किन्तु इन्सान की फितरत,
मैं कभी समझ नहीं पाया हूँ,
हर दिन एक नये रूप में,
यह सामने आता है,
न जाने रोज नये करतब,
कहाँ से सीख आता है?
हमने कहा – ऐ चाँद,
क्यों हो इस कदर खफा,
कुछ कमी तो तुममें भी रही होगी,
कि तुम इन्सान को समझ नहीं पाये,
तुम्हारा तो आसमान का सीधा सफर है,
तुम जमीं की जिन्दगी को नहीं जानते।
यहाँ रोज ही कितनी मजबूरियाँ,
मुश्किलें पेश आती हैं,
इन्सान को नये-नये रंग-ढंग सिखाती हैं,
सीधे – सादे इन्सान को,
पत्थरदिल और कठोर बनाती हैं।
शुक्र करो –
तुम फलक पर टँगे हो,
नीचे जमीं पर नहीं आते,
आज इन्सान को दे रहे हो दोष,
मुमकिन है तब तुम भी बदल जाते।
रचनाकार :- कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत) ।
वर्ष :- २०१३.