वो बच्चों के लिए खुद का निवाला छोड़ देती है — गज़ल
यशोद्धा खाने को मक्खन का प्याला छोड़ देती है
न रूठे शाम, हाथों की वो माला छोड़ देती है
छठा सावन की लाती है बहारें,झूमता गुलशन
धारा पर रूप अपना वो निराला छोड़ देती है
न माँ की ममता’ का कोई जहां में सानी ही होगा
वो बच्चों के लिए खुद का निवाला छोड़ देती है
सहो चाहे जमाने भर के ताने भी मगर फिर भी
कही अपनों की चुभती बात छाला छोड़ देती है
न माजी भूलने देता कभी दुखदर्द जीवन के
खलिश उनकी जिगर में रोज छाला छोड़ देती है
मशीयत पे यकीं रखना न अपनी छोडना नेकी
बला आये, तो हो इन्सान आला, छोड देती है
किये एहसां जताने का तरीका देख लो निर्मल
बडे आराम से खत मे हवाला छोड देती है