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कुटिल बुद्धि की सोच
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दो गज असल जमीन
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कर बैठा गठजोड़
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मनमुटावका आपका ये कैसा अंदाज
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अपना ये गणतंत्र
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बेशक कितने ही रहें , अश्व तेज़तर्रार
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पूछन लगी कसूर
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मेरे जज्बात जुबां तक तो जरा आने दे
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खोने के पश्चात ही,हुई मूल्य पहचान
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कहे करेला नीम से
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नियमों को रख ताक
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निकले क्या पता,श्रीफल बहु दामाद
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भेदभाव का कोढ़
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जब मति ही विपरीत हो
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चोट सीने पे आज खाई है
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मेरी बगल में उनका महान हो गया
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कलमकार का काम है, जागृत करे समाज
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जातिवाद की खीर
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मिली वृक्ष से छांह भी, फल भी मिले तमाम
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वे जो राई का सदा, देते बना पहाड़
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दिल में ज्यों ही झूठ की,गई खीचड़ी सीज .
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नाचेगा चढ़ आपके
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हुनर कभी मुहताज
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बुरा वहम का रोग है.
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यूं फिसले है आदमी, ज्यों मुट्ठी से रेत
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बूढ़ा बरगद खिन्न है,कैसे करुँ मैं छाँह
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सीने में जज्बात
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दिल का हर वे घाव
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बोलिंग बेटिंग फील्डिंग, तीनों सबके पास
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कसकर इनका हाथ
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जब भी बिछी बिसात
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बार बार अपमान
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सरल टिकाऊ साफ
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किया नहीं मतदान
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छपने लगे निबंध
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बनी रही मैं मूक
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जब से यार सलूक
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सहज कलेजा चीर
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कुछ की भौहें तन गई, कुछ ने किया प्रणाम
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शुक्ल पक्ष एकादशी
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पलकों की दहलीज पर
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लड़े किसी से नैन
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देते हैं जो मशविरा
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आएगा संस्कार खुद, वहां दौड़ कर पास.
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रिश्तों में जब स्वार्थ का,करता गणित प्रवेश
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है जो मुआ गुरूर
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आसमान की सैर
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समझाते इसको को हुए, वर्ष करीबन साठ ।
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दीवाली जी शाम
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बेशर्मी के हौसले
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