“सब बिकते देखा हमने “
“कुछ रंग बिरंगे टुकड़ों में लोगों के ईमान बिके,
आन बिके,सम्मान बिके,कलम बिकी स्वाभिमान बिके,
मुहँ खोला सच कहने को तब दीवारों के कान बिके,
नग्न घूमने को हैं कुछ बेबस, कुछ मुर्दों के परिधान बिके,कब तक चोरों का दोष कहें,जब घर के ही दरवान बिके,पशुओं की कीमत तो लगती थी,अब पैसों पर इंसान बिके,कहीं जल बिकता कहीं पवन बिका,कहीं धरा कहीं गगन बिका,सूरज की भी गर्मी बिक गयी,कुछ आधुनिक बंद मशीनों में, कावा काशी में उलझ गये हम कुछ उलझें हैं पाख महीनों में,धर्म के बाज़ारों में देखा अल्लाह,ईश्वर,भगवान बिके,
कई बार ज़रूरतों की खातिर लोगों के अरमान बिके,
विश्वास रहा ना अपनों पर भी,रिश्तों की मर्यादा और मान बिके,सामानों से सस्ती कीमत में अब लोगों के जान बिके “