इंसानों की बस्ती
इंसानों की बस्ती में अब हैवानों का पहरा है,,
नफरत का रंग अबकी यहाँ बहुत गहरा है,,
ईर्ष्या की नदियाँ तो जोरो-शोरों से बहती हैं,,
प्रीत का पानी जरुर, कहीं-न-कहीं ठहरा है,,
हर बात सुनने चला आता जो आपके घर,,
सच मानिए तो वह इंसान बहुत बहरा है,,
जला देते हैं लोग जहाँ देश के द्रोहियों को,,
वहाँ तो हर रोज का त्योहार ही दशहरा है,,
धुंधलेे नजर आते हैं मुझे इस बस्ती के लोग,,
शायद मेरी ही आँखों में कहीं घना कोहरा है,,
© प्रियांशु ” प्रिय ”
शा. स्व. महा.
सतना (म. प्र.)
मो. 9981153574