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28 Dec 2016 · 1 min read

बात हो जाए अब आर या पार की

जी में सूरत उभर आई फिर यार की
कोई पाज़ेब इस क़द्र झंकार की

हुस्न के शह्र में मैं भटक जाता पर
याद उसकी हमेशा ख़बरदार की

हूँ मैं हैरान आई कहाँ से भला
ख़ासियत हुस्न में सिप्हसालार की

बेरुख़ी हुस्न वालों की फ़ित्रत है जब
ख़ाक लेंगे ख़बर अपने बीमार की

कर चुका मैं बहुत इंतिज़ार इश्क़ में
बात हो जाए अब आर या पार की

था न मालूम उड़ जाएँगी धज्जियाँ
अंजुमन में तेरी मेरे अश्आर की

है ख़ुशी का न ग़ाफ़िल ठिकाना मेरे
आज पहली दफ़ा उसने तक़रार की

-‘ग़ाफ़िल’

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