अनेक एक हो जाते हैं( शेष भाग) जितेन्द्रकमल आनंद ( पोस्ट११५)
तब आवश्यकता नहीं रहती
मूर्ति अर्चना की / प्रस्तर – वंदना की
व्यर्थ कर्मकाण्ड की अथवा आडम्बर की,
नीराजना की
आराधना की
क्योंकि–
उसकी चेतना
हममें
पद्मवत खिल चुकी है
क्योंकि उसकी धड।कन
तुममें —
श्वास – प्रश्वास के साथ
मिल चुकी है,
हमसे सम्बंध अद्वैत हो गया है ,
तुम अद्वैत हो गये हो !
जलजलमें घुले लवण की भॉति/ हम– तुम
अनेक एक हो गये हैं ।
—-जितेन्द्रकमल आनंद