सृष्टा की यह सृष्टि याकि विश्व की : जितेंद्रकमलआनंद ( १००)
घऩाक्षरी ::
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सृष्टा की यह सृष्टि याकि विश्व की सृष्टि, वत्स !
झुक जाओ अपने ही चरणॉं में मिट| जाओ| ।
मेरा दृष्टा , तेरा दृष्टा अलग,– थलग नहीं ,
मिट जाओ अपने ही अंतस में डूब जाओ ।
आत्मा परमात्मा यह पृथक – पृथक नहीं ,
खो जाओ अपने इस मंदिर में जग जाओ !
भेद नहीं , द्वैत नहीं, स्वयं को अद्वैत मान ,
निज प्रकाश से ही मिल हो जग – मग डाओ !!
—– जितेन्द्रकमल आनंद