बीतता गया साल और यादें यूँ हीं गहराती गयींं,
बीतता गया साल और यादें यूँ हीं गहराती गयींं,
समय की पगडंडियों पर, सीखें खुद को दोहराती गयीं।
कल जी लेंगे, इस भ्रम में दुनिया हर बार पछताती गयी,
आज को गंवा कर, कल की यादों में दिल को डुबाती गई।
जीवन-मृत्यु के इस पुल पर, शख्सियत खुद को भरमाती गयी,
तलाश थी खुद की और खुद को हीं अंधेरों में छुपाती गयी।
मिली शाम की तन्हाईयाँ जहां, सवालों की महफिलें वहाँ लगाती गयी,
और सजे भ्रम के मेले जहां, वहाँ इच्छाओं के नशे में खुद को डुबाती गयी।
मीठे झड़ने के किनारे पर बैठ, बादलों की आस से प्यास बुझाती गयी,
जो कंपकंपी सी आयी तो, खुद की आशाओं में आग लगाती गयी।
शिकायतों भरे लहजे रहे, नफरत भी आँखों में मुस्कुराती गयी,
कहीं ज़हन में संवेदनाएं दिखीं, और कभी करुणा भी हृदय से लगाती गयी।
आकांक्षाओं भरे इस रन में, सुदूर कहीं किसी वन में वैराग्य भी धुन बजाती गयी,
शून्य सन्नाटे के अन्नत में, मेरी निःशब्दिता मुझे शब्दों से मिलाती गयी।