वनचारी राम
///वनचारी राम///
जन-जन में उत्साह भरा था
राम राजा सीता महारानी होंगी
नगरी फूले नहीं समाती थी
प्रजा की चिर आशा पूरी होगी
घर-घर में बंदनवार बंधे थे
जन जन में बधाईयों का गायन था
जैसे महा तपस्वी योगी की
अब परम सिद्धि भी पूरी होगी
अनायास ही सुनिर्णय जब,
विवशता में यूं ही बदले जाते हैं
फिर भी वचनबद्ध सपूत
माता पिता के वचन निभाते हैं
अपने आदर्श की रक्षा में
राम को राज्य त्याग भी तृण सा
ये चरण सदा वंदनीय बने
हम प्रभु चरणों में शीश झुकाते हैं
अवध राजपुत्र होंगे महाराजा
जन-जन के दुलारे राम हमारे
माता सीता अनुज लखन भी
जन मन के झिल मिल सितारे
प्रजा सभी तब निष्प्राण हो गई
राम ने वन पथ पर थे पैर उतारे
शोकाकुल हो उठी नगरी सकल
प्रभु ने निष्पृहता से सब स्वीकारे
माता कैकई और मंथरा को छोड़
सबके आंसू झर झर झरते थे
सारी नगरी हो गई सुनसान निर्धन
पिता दशरथ के प्राण तड़पते थे
मानो दावानल से जल गया नंदनवन
कैसे फिर मधुबन पल्लव पाएगा
खग्रास ग्रहण में सूर्य कुल फंस गया
प्रजा जन हा राम की आह भरते थे
वनवास काल में भी प्रभु राम ने
अपना तुंग व्यक्तित्व निखारा था
राक्षस कुल के आतंक राज्य से
पीड़ित जनों को मिला सहारा था
अभय मिला दानवता से राष्ट्र को
सारा जन परिवेश उत्फुल्ल हुआ
जन-जन के आदर्श बने श्रीराम
वनवास में पृथ्वी भार उतारा था
ऐसे प्रभु श्रीराम का सारा जग वंदन करता है
उनका अनुसरण ही जीवन में सद्गुण भरता है
स्वरचित मौलिक रचना
रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)