"प्रेम में होता है परिवर्तन"
“प्रेम में होता है परिवर्तन”
होता नहीं कोई अनुकर्षण,
ना ही कोई सम्मोहन,
बनकर लहर, हिलोर सा
काया, कलेवर में
हो जाता है सम्मिश्रण…
बसंत, ऋतुराज, की पहली बयार का
मंद-मंद अनुरक्ति स्पर्श सा,
अन्तर्मन की पटल पर
प्रत्यक्ष ज्ञान की
अनुभूति कराता है प्रेम…
“तदुपरांत होता है परिवर्तन”
अन्तर्मन के पटल पर
पहले होती हलचल,
नयन करते हैं अवलोकन…
अनायास ही किसी ओर
खिंचने लगता है अन्तर्मन…
अन्तर्मन के दृग के भीतर,
एक मृदु, सुकुमार सी
दीप्ती होती प्रज्वलित…
जिसको कोई वाक्य नहीं,
जिसको कोई नाद नहीं
कर सकता व्याख्यायित…
“पुनः होता है परिवर्तन”
चौसर की चालों से हटकर अन्तर्मन,
मनोभाव, संवेदना, की
सरलता में है बहने लगता…
नहीं करता विश्लेषण,
नहीं करता,अध्ययन,
प्रत्यक्ष ज्ञान की अनुभूति है करता…
“पुनः होता है परिवर्तन”
कलेवर भी शांत नहीं रहता…
हृदय स्पंदन का वेग
जैसे नए सुर में है बंध जाता…
चंचल होने लगती
तितलियाँ उदर में अदृश्य,
जब प्रेम समक्ष आता…
स्वर अपने नहीं लगते,
जिव्हा भाषा से हो जाती है अनजान
अन्तर्मन जैसे ही अभिव्यक्ति की कोशिश करता….
“पुनः होता है परिवर्तन”
प्रेम में तन्मय व्यक्ति
स्वयं को, जगत से
आहिस्ते-आहिस्ते करता है पृथक…
किसी घृणा से नहीं,
किसी द्वेष से नहीं,
किसी ईर्ष्या से नहीं,
किसी विरोध, क्षोभ से नहीं…
बल्कि:- समृद्धि, संतुष्टि, सहयोग, सत्य, संयम, सृजन, और संवेदना के तप से…
मौन अंतर्मन के भ्रमण के कारण..
प्रेम बन चुका होता है
ध्यानमग्न, ध्यानस्थ साधक
आँखें बंद कर अंतर्मन के
आलोकित आभा को है देखने लगता,
उसके परमानंद में होता है रहस्य,
उसके मौन हृदय में होती है कविता…
प्रेम, अंततः,
भाषा से परे है, परिभाषा से परे है
प्रेम, एक अनुराग स्पर्श है
प्रेम कभी आँखों से होता है, कभी मौन से,
कभी एक उच्छ्वास से,
कभी किसी की अनुपस्थिति में भी
उसकी उपस्थिति की अनुभूति से…
प्रेम कभी पूरा नहीं होता,
क्योंकि वह पूर्णता की कामना, या अभिलाषा नहीं करता…
प्रेम बस बहता है, पवित्र गंगा की भाँती
जो रास्ते में मिलने वाले हर पत्थर को भी प्रेम करती है,
और सागर से मिलने की कोई जल्दी नहीं रखती…