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14 Feb 2024 · 2 min read

*मूलांक*

डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त

मूलांक

बरसती बारिश रात की लरजती छाती ,
हर बात पर सहमा – सहमा सा मौसम ,

अनदेखी अनकही अचानक सी अचंभित मुलाकात थी , वो घबराई सी सिमटी थी , मैं चंचल मस्त भंवर सा शरारती ।

फिर ऊपर से कड़कना बिजली का कि जैसे टूटा कहीं पहाड़ था।
न वो बोली न मैं बोला , बेहद चुप्पी थी सालती ।

फिर आई मुसीबत सामने जल का स्तर था लगा बढ़ने ।
चहुं और विकट अधियारा था , हाँथ को हाँथ भी अनजाना था ।

वो सबला नारी वक्त से हारी , मजबूरी में आकर पास मेरे यूं बोली ।
कुछ कीजिए ऐसे तो हम डूब जाएंगे, नाहक अपनी जान गवायेंगे।

यक दम मेरा पुरुषत्व जगा, मैं बोला मत घबराएँ आप ।
मदद मिलेगी हमको, थोड़ा सा धैर्य तो कीजिए आप ।

मोबाईल निकाला तब मैंने , लेकिन वो भी तो गीला था ।
फिर हिम्मत करके मैंने उसको पास के पेड़ पर चड़ा दिया ।
साथ साथ खुद को भी पास की डाल पर बैठा दिया ।

फिर सुबह कटी जैसे तैसे , मदद मिली हम अपने अपने घर पहुंचे ।
ये वाकया मेरे जीवन के साल सोहलवे में सच – सच गुजरा
कहता किस से सुनता कौन मैं बालक था निपट अज्ञान भरा।

लेकिन एक दिन कॉलेज में एक फंक्शन था साहित्यक विमर्श का उत्सव था।
अलग – अलग प्रान्तों से छात्र छात्राओं का साहित्यक संगम था।

हम भी अपनी रचना को लेकर उत्साहित से शामिल थे , ये बात अलग है थोड़े से चिंतित थे।
सबने देखा सबने बोला, अपने अनुभव को मंच पर पेश किया।

फिर हुआ अचानक प्राकट्य विस्फोटक जैसे किसी ने बम फोड़ा।
वो साल पुरानी बात अचानक वो बारिश की रात अचानक मेरे जेहन में आई ।

वो कन्या राशि तरुणाई सी लहराती हुई मंच पर जब आई ।
धरती खिसकी पैरों के तल से खुद पर खुद से संवाद छिड़ा।

वो रही बोलती कोकिल स्वर में मैं खोया – खोया अपने
भ्रम में।
सच था या फिर सपना था ये कहना बिलकुल मुश्किल था ।

फिर नाम लिया संचालक ने मेरा तब ही आया था होश वहां
अपनी कविता को लेकर मैंने भी रच दिया एक इतिहास
नया।

भाव के आवेश में शब्दों के प्रारूप में, वो सीधी सादी प्रभु की रचना।
मेरी रचना को सुनकर रोक सकी न खुद को पलभर, आकर मुझको अंगीकार किया।

यूं लगा उस दिन फरवरी 14 थी कामदेव की सीधी दृष्टि समझो तो सीधी मुझ पर थी ।
मैने उनके इस महा प्रसाद को सच में आदर सहित स्वीकार किया।

बरसती बारिश रात की लरजती छाती ,
हर बात पर सहमा – सहमा सा मौसम ,

अनदेखी अनकही अचानक सी अचंभित मुलाकात थी , वो घबराई सी सिमटी थी , मैं चंचल मस्त भंवर सा शरारती ।

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