Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
5 Aug 2025 · 2 min read

चेतना और प्रेम

“चेतना” और “प्रेम”
एक है प्रज्ञा का प्रवाह,
दूसरा अंत:करण की ध्वनि,
मानव अधिकांशत: डरता है
प्रज्ञा के प्रवाह, से
न देहावसान से, न विनाश, से,
न ही विध्वंस से…
बल्कि उस मेधा, मति से
जो उसकी वृत्ति के संरचना को
झकझोर कर है रख देती…
करता जब यही प्रज्ञात्मक प्रवाह
प्रेम में प्रवेश
तब ऐसी तरंग है उठती
जो न केवल दिल को है छूती
बल्कि
अन्तर्मन तक को है झकझोर देती
प्रेम मनोभाव है, प्रेम है अनुभूति
लेकिन यह भावना
यदि अंत:करण की हृदय ध्वनि सुनती
तो हो जाती “प्रेम प्रवृति” प्रेम प्रकृति”…

मोह, माया, ममता
या बन जाती है सामुदायिक सुगमता…
स्त्री और पुरुष के बीच का रिश्ता
सदियों से एक प्रारूप में है ढाला गया,
जहां होती तो हैं भावनाएं, परन्तु प्रश्न नहीं….
जहां होता है साथ, परन्तु अंतर्मन नहीं…
अर्थात:-
जब मनुष्य अंतर्मन नहीं,
करता है प्रयोग ज्ञान रूपी चेतना का
मनन करने लगता है प्रेम संबंधों का,
तब संबंधों की नीव पर उठता है:-
“प्रश्नचिन्ह”

प्रेम मेरा कितना…?
समाज का कितना…?
चेतन मन प्रेम को आसान नहीं रहने देता…
वह उससे पूछता है कि क्या यह सत्यांश: अपनत्व है,
या है बस
सांस्कृतिक अनुबंधों की पूर्ति…?
स्त्री जब करती है प्रेम
समुदाय करता है अपेक्षा उससे त्याग की,
पुरुष करता है अधिकार की,
अन्तर्मन मांग करता है संतुलन की….
अंततः
“चेतना” और “प्रेम”
दोनों मिलकर ही मनुष्य को संपूर्ण बनाते हैं,
प्रेम से चेतना के रंग को मिलाते हैं…
चेतन मन दिशा दिखाता है…
प्रेम कोमलता लाता है,
चेतन मन स्पष्टता से हमें जोड़ता है,
प्रेम हमें मुक्त करता है…

प्रेम जब चेतना से होकर है गुजरता,
तब वह और परिपक्व होता,
उसमें न बंधन, न अधिकार होता,
वह स्वतः स्वीकार होता…
न कोई अधिकार, न कोई अपेक्षा
होती यही है वह अवस्था
जहाँ मीरा की भक्ति,
रहीम की अनुभूति,
कबीर की पाती,
राधा की प्रीति,
एक साथ है मिलती…

प्रेम तब देह से परे,
आत्मा का संगम बनता
न नाम की प्यास रहती,
न समाज की स्वीकृति की चिंता…
यही प्रेम भक्ति,
यही प्रेम चिन्तन, प्रेम संवेदन,
मनुष्य की है सबसे बड़ी प्रेम शक्ति,
मनुष्य की है सबसे बड़ी प्रेम महिमा,
मनुष्य की है सबसे बड़ी प्रेम गरिमा…

Loading...