#कविता

#कविता
😡 लेने के देने पड़ जाते।।
{प्रणय प्रभात}
संविधान की शपथ उठा कर असंविधान विचारों में।
सामाजिकता वाले दावे, ज़हर भरा है नारों में।।
बीच भीड़ के बने भेड़िए, गुर्रा बैठे शेरों पर।
सुर्खी में आने को बैठे, ख़ुद बारूदी ढेरों पर।।
आई शामत तो बकरी की, बोली में मिमियाते हो।
ओखल में सिर देकर काहे, मूसल को गलियाते हो??
विक्रम समझे ख़ुद को, न्यौता दे डाला बैतालों को,
चूहे सा बिल में दुबके, अब परख रहे हैं तालों को।
बीच सुरक्षा घेरे में, थोथी दम पर ना इतराता।
काश नाराधम को इतना संकेत समझ में आ जाता।
कितनी खैर मना ले मां, बकरे की जान नहीं बचती।
हो श्वान गली का बंगले का, रोटी घी लगी नहीं पचती।।
जो ज़हनों के अंधे उनको, मन का दर्पण दिखलाता हूँ।
मैं सिर्फ़ इशारा देता हूँ, संकेतों में बतलाता हूँ।।
लावा बन लहू धधकता है, कविता तो मात्र बहाना है।
जो समझदार हैं वो समझें, केवल इतना समझाना है।।
क़द का पद का सारे मद का, बस सिर से भूत भाग जाता।
यदि एक सुरक्षाकर्मी का भी, आज ज़मीर जाग जाता।।
बेमतलब गाली देने में, लेने के देने पड़ जाते।
इतने जूते पड़ते सिर पर, सब बाल सड़क पर झड़ जाते।।
*************************************
(संपादक)
न्यूज़ एंड व्यूज