मातृ शरण
///मातृशरण///
मातृ चरण शोभा अति न्यारी,
तुम पराशक्ति तुम ही संसारी ।
मातु चरणपद रति मोहे दीजै,
बसहुं हृदय मह संग त्रिपुरारी ।।
कोटि प्रणाम चरण पद वंदन ,
प्रसन्न बदन मैना-हिम नंदन ।
करहुं किरपा जगदंब भवानी ,
अचल भक्ति वरदान सुस्यंदन ।।
काम क्रोध मद लोभ विनाशिनी,
सकल सुमंगल बुद्धि प्रदायिनी ।
आन पड़े मातु सुत शिशु तुम्हारे,
तार दियो मां सकल सु-धारिणी ।।
कलि काल कुटिल कर्म प्रभावी,
जानत नहीं कोई भविता भावी।।
दानवता सिर चढ़ बोल रही मां,
कर रक्षण सुजन हितु स्वभावी ।।
मानवता अब कराह उठी है ,
जगत संरक्षक क्यों रूठी है ।
त्राहि त्राहि कर उठा विश्व ये,
कृपा सुशासनी क्यों टूटी है ।।
करते वंदन सकल सुधर्म के ,
कर विनाश पिशाच अधर्म के ।
कैसे बढ़ती विष बूझी ज्वाला,
मानव बनता ग्रास कुकर्म के।।
शरण पड़े मां हम द्वार तिहारे,
तुम तत्क्षण कोटि दनुज संहारे।
अब पुनः घड़ी ये आन पड़ी है,
दनुमर्दन कर जन जगत संवारे।।
मां तुम जनजन में शौर्य बन उभरो,
मानवता फलित पल्लवित होती रहे।
एक शरण जगती में तुम ही माता,
नित्य निरंतर प्रेम सरिता बहती चहे।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)