“एक दिन लौटूंगा…मैं परदेशी”(कविता) अभिलेश श्रीभारती

निकला था मैं सपनों की डगर पे,
छोड़ दिया अपना गांव बस यादें थी नजर पे।
माँ की ममता, आँगन की छाँव,
अब बस यादों में बची है ठांव।
शहर की इस भीड़ में खो गया हूँ,
चेहरे अनजाने सा है परदेसी हो गया हूँ।
सपनों की कीमत चुकानी पड़ रही हैं,
अपनों के लिए अपनों से दूरी निभानी पड़ रही हैं।
अब त्योहार आते, पर रंग नहीं होते,
खुशियाँ होतीं, पर संग नहीं होते।
फोन पे कहती हैं मां “बेटा, कब आएगा तू लौट उस शहर से?”
जी भर के देख लूं मैं तुझे अपनी नजर से।
दिल मेरा भी करता है अब लौट चलूँ वहीं,
सुकून था जहां, जहां ममता का प्यार बही।
पर जिम्मेदारियां की जंजीर पैर में ऐसी जकड़ी हुई है,
न रुक सकता हूं, न लौट सकता हूं। पैर ऐसी पकड़ी हुई है।।
एक दिन लौटूँगा मैं,रुक समय थोड़ा इंतजार कर।
माँ के आँचल में सिर रख बोलूंगा , अब मां जितना प्यार कर।।
उस परदेस में मां मैं तेरी भावों का भूखा था।।
सपनों की चाहत में ख्वाबों सा सूखा था।।
– एक परदेसी की पुकार
✍️ रचनाकार व् लेखक ✍️
अभिलेश श्रीभारती: एक परदेशी
सामाजिक शोधकर्ता, विश्लेषक, लेखक