दोहा सप्तक. . . . . अधर
दोहा सप्तक. . . . . अधर
अधरों पर विचरित करे, प्रथम प्रणय आनन्द ।
अद्भुत होता प्रेम का, मंद -मंद मकरंद ।।
अभिसारों के वेग में, बंध हुए निर्बंध ।
मदन भाव उन्नत हुए, महके पल निर्गंध ।।
जाने कितने प्रेम के, रचे दहकते छंद ।
बाहुबंध कसते गए, बढ़े देह के द्वन्द्व ।।
अधरों के अनुरोध जब, अधर करें स्वीकार ।
अंग – अंग में प्रेम का, होता फिर संचार ।।
मन बस में रहता नहीं, आता जब मधु काल ।
कैसे फिर टूटे भला, अभिसारों का जाल ।।
अधर घटों पर जब करें, अधर प्रेम का रास ।
नस – नस में विचरण करे, मौन मधुर मधुमास ।।
अधर दलों पर डोलता, जब दिल का ईमान ।
अभिसारों में छोड़ते, अधर अमर पहचान ।।
सुशील सरना / 22-3-25