अंतर्मन

मेरे अंदर न जाने कितनी औरतें फुदफदाती है,
और मुझे इन्सान बनने से रोकती हैं
कहती हूँ मैं उनसे , कौन हो तुम , कहाँ से आई हो , पर वो जवाब नहीं देती
कई बार रात को मैं उनकी सिसकियों से जाग जाती हूँ
पर वे मुझे दिखाई नहीं देती
मैं पूछती हूँ दरो दिवारों से
क्या बता सकोगे तुम उनकी कहानी, जो सबल होकर भी रही निर्बल
जो प्यासी रही जलधार बनकर
दरो दीवार मौन रहते हैं , और यह सही भी है
कैसे कोई सुना सकता है दमन की इतनी कहानियाँ
घर घर होती युगों युगों से इतनी कुर्बानियां
पर अब , अंत होगा, हो रहा है
जा लड़की , जी खुले आसमान के नीचे , सहज होकर
तेरे सारे ग़लत सही हैं आज , तूं जा और इनसान बन जा
भगवान की यह दुनिया तेरी बाट जोह रही है ।
—शशि महाजन