अवधी कविता

पिरकी
टूट जाय जउ बार गोड़ कै वहका लोग बतावत पिरकी
अंग कुअंग निकरि जउ आवै जान पे ई बनि आवत पिरकी
निकरै जउ ई गाले मा तौ फूल जाय मुँह बाँदर यस
दुइन दिना मा रंग दिखावै खूँन मवाद बनावत पिरकी
कहूँ कखौरिम निकरि जउ आवै गत ना पूछौ भैया तू
हाथ उठाये उठतै नाही दिन अउ रात रोवावत पिरकी
नान सयान अउ बूढ़ पुरनिया कोई कैंहें बख्सै ना
लूला लेंगड़ा सब कै डारै लाठिक बले चलावत पिरकी
जहर पिरकिया कहत हैं यहका येकर यहै दवाई है
काली मिरिच लगाओ प्रीतम फिर न उभर ई पावत पिरकी
प्रीतम श्रावस्तवी