Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
23 Mar 2025 · 1 min read

अँधेरी रातों की परछाईयाँ, अस्तित्व में यूँ घुल जाती है,

अँधेरी रातों की परछाईयाँ, अस्तित्व में यूँ घुल जाती है,
कि दिन के उजालों में भी, वो संग टहलती नजर आती हैं।
अब डर का भान नहीं, और खुशियों की रही आस नहीं,
यूँ मृत संवेदनाओं के बाजार में, ज़हन की बोली लग जाती है।
सूखे पत्ते की परवाह अब, वो दरख़्त भी करता नहीं,
यूँ शहर की गलियों में भटकती हुई, वो धूल हो जाती है।
कहाँ आसान होता है, सच की तस्वीर दिखा पाना सदा,
झूठ के चकाचौंध से, सबकी आँखें जो मीच जाती हैं।
एक ज़हर सा घुला है, इन हवाओं में भी हर तरफ देखो,
साँसें कितनी भी ले लो, धड़कनें मृत्यु को खींच जाती हैं।
एक चीख है जो हर क्षण, कानों को सहलाती है,
पर शब्दों के आभाव में, वो बस खामोशी को सताती हैं।
चोटिल सपनों की वो कश्ती, जो तैरती थी लहरों पर,
एक दिन बिना बवंडर के हीं, वो समंदर हो जाती है।
वो चाँद जिसने देखा है, अपनी आँखों से हालातों को,
जो आया लम्हा गवाही का, उसे अमावस निगल जाती है।
संघर्षों के इस रण में और दर्द के मलंग में,
खोई ‘मैं’ की तलाश में, अस्तित्व खुद हीं निकल जाती है।

Loading...