भाषा से परे राजनीति, तमिलनाडु में हिंदी विरोध से लेकर सत्ता संघर्ष तक: अभिलेश श्रीभारती

मैं पिछले 4 से 5 सालों लगातार दक्षिण भारत के राज्यों में रह रहा हूं, इसीलिए धीरे-धीरे मुझे यहां की राजनीतिक परिवेश और गतिविधियों में रुचि बढ़ती जा रही है या इसे ऐसे कहूं की यहां की राजनीति की मुझे धीरे-धीरे लत लगती जा रही है। और इस सब में सबसे दिलचस्प तमिलनाडु की राजनीति है जहां सिर्फ भाषावाद की कट्टरता और हिंदी विरोध के साथ द्रविड़वाद की राजनीति चलती है और प्राचीन काल से ही यहां भाषावाद और हिंदी विरोध के खाद-पानी से सींचा गया है।
लेकिन यदि आप देश के वर्तमान राजनीतिक गतिविधियों पर गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि द्रविड़वाद से भाषावाद तक राजनीतिक का यह जड़ अब धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी है।
जो राजनीतिक पार्टियां जनता को बार-बार यह दिखाने का प्रयास कर रही है की देखो मैं तुम्हारे लिए अपने शरीर पर पेट्रोल छिड़क रहा हूं, मतलब तुम्हारे लिए हम किसी भी हद तक लड़ने को तैयार है। जिस दिन जनता को यह समझ में आ गया कि यह एक दिखावटी और नकली पेट्रोल है । उस दिन जनता खुद के हाथों सचमुच उस पर पेट्रोल डालकर आग लगा देगी।।।
और इसका सबसे ताजा उदाहरण है दिल्ली की तख्तापलट।।
इस आलेख के लिखते हुए मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं व्यक्तिगत रूप से किसी भी राजनीति विचारधारा का समर्थन नहीं करता लेकिन जातिवाद, अलगाववाद, भाषावाद, समाजिक ध्रुवीकरण और तुष्टिकरण जैसे राजनीतिक हथकंडों से सहमत नहीं हूँ और इस प्रकार के विचारधाराओं का समर्थन करने वाली राजनीतिक पार्टियों देश को दीमक की तरह खा रहे हैं और देश के युवा पीढी को एक गहरी खाई की तरफ धकेलना का एक योजनाबद्ध प्रयास कर रहे है:~अभिलेश श्रीभारती
तमिलनाडु की राजनीति हमेशा से देश के अन्य हिस्सों से अलग रही है। यहां द्रविड़ विचारधारा की गहरी जड़ें हैं, और इसी के चलते हिंदी विरोध एवं भाषावादी राजनीति का खेल दशकों से चलता आ रहा है। लेकिन अब, राज्य की राजनीति में एक नया मोड़ आने वाला है।
विजय थालापति, जो तमिल सिनेमा के सबसे महंगे और लोकप्रिय सितारों में से एक हैं, अब राजनीति में कदम रख चुके हैं। उनकी एंट्री डीएमके (DMK) के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है। विजय न केवल एक सुपरस्टार हैं, बल्कि उनकी छवि एक सशक्त तमिल नेता की भी बन सकती है।
तमिलनाडु में बीजेपी धीरे-धीरे अपनी पकड़ मजबूत कर रही है। राज्य में उसका वोट प्रतिशत 12% तक पहुंच चुका है, और सहयोगी दलों को मिलाकर यह आंकड़ा 17-18% तक जा सकता है। दूसरी ओर, डीएमके फिलहाल 29% वोटों के साथ मजबूत स्थिति में है, लेकिन यह बढ़त स्थायी नहीं है।
डीएमके की राजनीति भाषा आधारित है। यह पार्टी हिंदी का खुला विरोध करती रही है और तमिल अस्मिता के नाम पर लोगों को अपने साथ जोड़ने में सफल रही है। लेकिन क्या यह रणनीति लंबे समय तक कारगर रह सकती है? शायद नहीं।
अब जब विजय थालापति भी “तमिल पहचान” की राजनीति में उतर आए हैं, तो डीएमके के लिए यह मुश्किलें खड़ी कर सकता है। विजय भी प्रो-तमिल नेता बन सकते हैं, लेकिन उनके आने से डीएमके के वोटों में सेंध लग सकती है, जो अंततः बीजेपी के लिए फायदेमंद होगा।
तमिलनाडु में बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अकेले दम पर सत्ता में नहीं आ सकती। उसे या तो डीएमके और एआईएडीएमके (AIADMK) के बीच किसी एक को कमजोर करना होगा, या फिर किसी नए राजनीतिक चेहरे के जरिए समीकरण बदलने होंगे। विजय थालापति का राजनीतिक प्रवेश इसी दिशा में एक बड़ा अवसर बन सकता है।
अगर विजय, डीएमके के वोटों को 29% से गिराकर 20% तक ले आते हैं, और बीजेपी कांग्रेस एवं एआईएडीएमके के कुछ वोटों में सेंध लगाने में सफल रहती है, तो एनडीए (NDA) का वोट शेयर 25% पार कर सकता है। भले ही इससे सत्ता हासिल न हो, लेकिन बीजेपी राज्य की राजनीति में मजबूत भागीदारी हासिल कर सकती है।
बीजेपी की अगली चुनौती केरल है, जहां ईसाई और मुस्लिम समुदाय अभी तक कम्युनिस्टों और कांग्रेस के समर्थन में रहा है। हालांकि, हाल के वर्षों में केरल के ईसाई समुदाय में कम्युनिस्टों के प्रति असंतोष बढ़ा है। यदि तमिलनाडु में बीजेपी अपनी पकड़ मजबूत कर लेती है, तो केरल में भी इसका असर देखने को मिल सकता है।
लेकिन यहां बीजेपी के सामने एक दुविधा है। यदि वह दक्षिण में ईसाइयों का समर्थन लेने की कोशिश करती है, तो उत्तर भारत में उसके अति-हिंदू समर्थक नाराज हो सकते हैं। इसलिए बीजेपी को एक संतुलित रणनीति अपनानी होगी, जिसमें वह तमिलनाडु और केरल में अलग-अलग तरीकों से आगे बढ़े।
अब यहां पर सवाल यह उठता है कि
क्या हिंदी का विरोध साऊथ राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है?
तमिलनाडु में हिंदी का विरोध कोई नई बात नहीं है। डीएमके सहित कई तमिल पार्टियां इसे अपनी राजनीतिक पहचान का हिस्सा मानती हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि हिंदी किसी भाषा को खत्म नहीं कर रही, बल्कि भाषाओं के आदान-प्रदान को बढ़ावा दे रही है।
गणेश आरती में मराठी शब्द होते हैं, गरबा गीतों में गुजराती का प्रभाव दिखता है, और इन भाषाओं का साहित्य पूरे भारत में पढ़ा जाता है। बावजूद इसके, मराठी या गुजराती भाषा समाप्त नहीं हुई, बल्कि उनका प्रसार और बढ़ा है।
तमिल पार्टियों ने एक बड़ा वर्ग “भाषाई संकीर्णता” में कैद कर दिया है। लेकिन यह स्थिति हमेशा नहीं रहने वाली। हिंदी का विरोध करने से तमिल भाषा मजबूत नहीं होगी, बल्कि तमिल समाज के लिए नए अवसरों को सीमित कर दिया जाएगा।
बीजेपी को अब तमिलनाडु में अपनी रणनीति को और मजबूत करने की जरूरत है। उसे चुनावी प्रयोगों से बचते हुए जमीनी स्तर पर काम करना होगा। हिंदी के प्रति वैमनस्य को दूर करने के लिए हिंदीभाषी राज्यों को भी आगे आना होगा। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखंड जैसी राज्य सरकारों को दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार के लिए ठोस प्रयास करने होंगे।
तमिलनाडु की राजनीति अब बदलाव की ओर है। विजय थालापति की एंट्री ने समीकरण बदल दिए हैं। आने वाले चुनावों में यह तय होगा कि डीएमके अपनी पकड़ बनाए रखेगी या फिर दक्षिण भारत में बीजेपी की स्थिति और मजबूत होगी।
जो राजनीति पढ़ते हैं, वे विजय को एक विलेन मान सकते हैं, लेकिन जो राजनीति समझते हैं, वे इस बदलाव को एक नए युग की शुरुआत के रूप में देखेंगे। तमिलनाडु अब दूर की कौड़ी नहीं रहा—यह बदलाव की दहलीज पर खड़ा है।
नोट: यह लेखक की अपनी निजी विचार है! लेखक किसी भी पार्टी विशेष का समर्थन नहीं करते।
✍️लेखक✍️
Abhilesh sribharti अभिलेश श्रीभारती
सामाजिक, शोधकर्ता, विश्लेषक लेखक
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा संगठन प्रमुख SSES