आज हमारी प्राथमिकताएं, इलाज से ज्यादा धर्म और जाति पर बहस: अभिलेश श्रीभारती

इस आलेख को लिखने से पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं की देश के स्वास्थ्य सिस्टम पर सवाल खड़ा करने मेरा हक, अधिकार और कर्तव्य है।
मैं यह आलेख लिखकर किसी का, किसी से तुलना नहीं कर रहा हूं बल्कि यह समझाने का प्रयास कर रहा हूं की यही सिस्टम उस समय कहां होता है जब एक आम आदमी स्वास्थ्य संबंधित मूलभूत आवश्यकता होती हैं।
आखिर क्यों एक आम आदमी मूलभूत स्वास्थ्य संबंधित सुविधाओ से भी वंचित रह जाता है?
यह सवाल सिर्फ मेरे सवाल नहीं है यह देश की हर एक आम नागरिक का सवाल है और मैं उस सवाल को लेकर इस आलेख को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं: अभिलेश श्रीभारती
रात के डेढ़ बजे, 73 वर्षीय एक बुजुर्ग को हृदय संबंधी समस्या के कारण देश के सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल, एम्स में भर्ती कराया जाता है। अगले ही दिन उनके हृदय में स्टेंट प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। डॉक्टरों की एक पूरी टीम लगातार उनकी निगरानी में लगी रहती है। देश के स्वास्थ्य मंत्री खुद हालचाल लेने पहुंचते हैं, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी अपनी व्यस्तताओं को दरकिनार कर एम्स आकर उनसे मुलाकात करते हैं। पूरा प्रशासन और अस्पताल तंत्र उनकी सेवा में समर्पित नजर आता है। यह देखकर लगता है कि हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था अद्भुत है—एक बीमार बुजुर्ग की देखभाल में पूरा तंत्र जुट जाता है। इससे अधिक और क्या सेवा हो सकती है? क्या अमेरिका और इंग्लैंड भी ऐसी स्वास्थ्य सुविधाएं दे सकते हैं?
लेकिन…
हां, यह लेकिन देश के स्वास्थ्य सिस्टम पर सबसे बड़ा सवाल खड़ा करती है?
जब यह बुजुर्ग देश के माननीय उपराष्ट्रपति, श्री जगदीप धनखड़ होते हैं, तब यह सेवा उपलब्ध होती है। ज़रा सोचिए, यदि यही परिस्थिति किसी आम बुजुर्ग के साथ घटित होती, तो क्या उनका परिवार एम्स में रात के डेढ़ बजे उन्हें भर्ती कराने की कल्पना भी कर सकता था?
सोचिए नहीं। गंभीरता से सोच कर उत्तर दीजिए
कभी नहीं।।।
आम आदमी को ऐसे हालात में किसी महंगे निजी अस्पताल का रुख करना पड़ता है, जहां मरीज नहीं, बल्कि क्लाइंट होते हैं। वहां पहला सवाल पूछा जाता है—”क्या आप किसी पैनल में आते हैं? क्या आपके पास हेल्थ इंश्योरेंस है?” इमरजेंसी में भर्ती होने पर पहले कुछ घंटों में ही 60-70 हजार रुपये खर्च हो जाते हैं। फिर आईसीयू में हर दिन का खर्च 1 लाख रुपये तक पहुंचता है। यानी एक हफ्ते के भीतर 8-10 लाख रुपये का बिल बन जाता है। इसके बावजूद मरीज की सेहत की कोई गारंटी नहीं होती।
लेकिन अगर आप VIP हैं, तो एम्स के दरवाजे आपके लिए 24×7 खुले रहते हैं। उपराष्ट्रपति धनखड़ जी को रात डेढ़ बजे भर्ती किया गया, लेकिन आम नागरिक के लिए एम्स में दाखिला लेना कई महीनों, यहां तक कि वर्षों तक प्रतीक्षा करने जैसा होता है। कहा जाता है कि एम्स में सांसदों और मंत्रियों की कोई सुनवाई नहीं होती—यह अब तक के सबसे बड़ा सफेद झूठ है।
सच्चाई यह है कि एम्स नेताओं और अधिकारियों का इलाज केंद्र बन चुका है।
सरकारें बदलती रहीं—कभी कांग्रेस, कभी भाजपा। प्रधानमंत्री भी बदले—मनमोहन सिंह से नरेंद्र मोदी तक। लेकिन आम आदमी की स्वास्थ्य सुविधाओं में कोई ठोस सुधार नहीं हुआ।
और क्यों नहीं हुआ यह सवाल में आपके ऊपर छोड़ता हु?
आयुष्मान भारत जैसी योजनाएं भी प्राइवेट अस्पतालों के लिए सोने की खान साबित हुईं। छोटे शहरों में देखें तो एक डॉक्टर कुछ साल की प्रैक्टिस के बाद सबसे बड़ा व्यापारी बन जाता है। अस्पतालों में बाउंसर तैनात किए जाते हैं, ताकि मरीज या उनके परिजन कोई शिकायत न कर सकें। ऐसा कोई मंच नहीं जहां आम आदमी अपनी समस्याओं को उठा सके। नए एम्स बनते जा रहे हैं, लेकिन वहां की स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति पर कोई रिपोर्ट तक नहीं मिलती।
यह देश भगवान भरोसे चल रहा है, और हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था भी। डॉक्टर क्या इलाज कर रहे हैं, इस पर सवाल उठाना भी मुश्किल हो गया है। आम आदमी स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर तब तक चिंता नहीं करता, जब तक खुद या उसके परिवार का कोई सदस्य बीमार न हो जाए। हम धर्म, जाति, त्योहारों और राजनीतिक बहसों में उलझे रहते हैं, लेकिन यह सोचने का समय नहीं निकालते कि जब हमें इलाज की जरूरत पड़ेगी, तब हमारे लिए क्या इंतजाम होंगे?
फिलहाल, धनखड़ जी जल्द स्वस्थ हों—ईश्वर से यही कामना ,शुभकामनाएं और प्राथना हैं
। बाकी, आपकी मर्जी…
करते रहिए जाति, धर्म, मजहब और समुदाय के नाम पर राजनीति।।
और ये राजनीति आपको मुबारक हो
नोट: यह लेखक की अपने नीति विचार है। इस आलेख का मतलब किसी भी पार्टी विशेष या व्यक्ति पर कटाक्ष करना नहीं बल्कि सिर्फ एक जनसमस्या को उठाने का प्रयास किया गया है।।।
~साहित्य, लेखक और रचना~
अभिलेश श्रीभारती
सामाजिक शोधकर्ता, विश्लेषक, लेखक
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा संगठन प्रमुख