ध्यान कैसे करते हैं..??

ध्यान करना योग की एक उच्च स्थिति है। व्यक्ति योग के भिन्न भिन्न आसान बहुत ही कुशलता से कर लेता है मगर ध्यान पर पहुँचकर वह पुनः आम व्यक्ति की भाँति शून्य हो जाता है। जबकि योग के आसन करने का उद्देश्य ही ध्यान की स्थिति तक पहुंचना ही है। अगर कोई भी योगी कुशलतापूर्वक योग आसन करने के बाद भी ध्यान घटित नहीं कर पाता तो उसे योगी कहना पूर्णतः अनुचित है। ऐसा व्यक्ति योगी नहीं बल्कि भिन्न भिन्न प्रकार से व्यायाम करने वाला मात्र है। योगी वही है जो योगासनों का प्रयोग कर ध्यान घटित कर सके। प्रत्येक बलिष्ठ शरीर वाला व्यक्ति पहलवान या सैनिक नहीं हो सकता उसी भाँति योगासन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति योगी नहीं हो सकता। सैनिक वही व्यक्ति है जो शरीर से भले ही कम बलिष्ठ हो किंतु हथियार चलाने में, युद्ध की बारीकियों को समझने में पूर्णतः कुशल हो।
अब प्रश्न उठता है तो फिर ध्यान क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है?
ध्यान आँखें बंद कर बैठ जाने की क्रिया बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि यह जरूरी नहीं कि ध्यान केवल बंद आँखों में ही घटित होता है बल्कि वह खुली आँखों में भी अपनी पूर्णता के साथ घटित होता है। जब ध्यान घटित होता है व्यक्ति का शरीर इस प्रकार चेतना शून्य हो जाता है जैसे उसे बेहोशी का इंजेक्शन लगा दिया हो। वास्तव में ध्यान स्वतः घटित होने वाली ऐसी क्रिया है जिसे जबरन शरीर पर थोपा नहीं जा सकता। जैसे नींद भी स्वतः घटित होने वाली क्रिया है ना कि इसे शरीर पर थोपा जाता है। जैसे जब बच्चे छोटे होते हैं तो उनकी आँखों में नींद घटित तो हो रही होती है किंतु उस घटित हो रही नींद में शरीर को कैसे सम्मिलित करे यह उनको नहीं आता, इसलिए जब बच्चों को नींद आती है तो वो रोने लगते हैं पर सो नहीं पाते। इसी कारण माताएं छोटे बच्चों को लोरी सुनाती है, या फिर खड़े होकर गोदी में घुमाती है या फिर झूला झुलाती हैं। इससे उनका शरीर भी उसी धारा में बहने लगता है जिसमें उनकी नींद घटित हो रही होती है और वो सो जाते हैं। अर्थात शरीर को नींद की धारा में लाने के लिए इंसान को बचपन से ही अभ्यास करना होता है तब जाकर वह नींद के घटित होने में अपने शरीर का संतुलन बिठा पाता है। इसी प्रकार ध्यान को घटित करने के लिए भी व्यक्ति को बहुत अभ्यास करना पड़ता है जो शरीरिक एवं मानसिक स्तर पर होता है। एक कुशल योगासन करने वाला व्यक्ति शरीर के स्तर पर तो ध्यान की स्थिति में आ जाता है किंतु मानसिक स्तर पर वह सामान्य व्यक्ति की ही भाँति होता है। इसलिए वह पूर्ण योगी नहीं बन पाता क्योंकि शरीर से ज्यादा ध्यान घटित करने के लिए मानसिक स्थिति जरूरी है। इस मानसिक स्थित को लाने में योगासन बहुत मदद जरूर कर सकते हैं किंतु पूर्णतः नहीं।
वास्तव में ध्यान शरीर और दिमाग की जरूरत के अनुसार वस्तु और विचार पर घटित हो जाता है। जैसे भूख लगने पर खाने पर ध्यान जाता है प्यास लगने पर पानी पर ध्यान घटित होता है उसी प्रकार कुछ सीखने के लिए पढ़ाई पर ध्यान घटित होता है। कर्म अच्छे या बुरे करने के लिए अच्छे या बुरे विचारों पर घटित होता है। अर्थात ध्यान जरूरत अनुसार हर समय घटित होता रहता है। इसलिए परमध्यान घटित होने के लिए जरूरी है कि व्यक्ति परमतत्व को अपनी जरूरत बनाए अर्थात धारणा बनाए। जब परमतत्व धारणा बन जाएगा ध्यान स्वतः ही उसपर घटित हो जाएगा जैसे भूख लगने पर खाने पर ध्यान घटित होता है।
परमतत्व को जरूरत बनाने के लिए जरूरी है कि दिमाग से अन्य सामाजिक सांसारिक विचारों को निकाला जाए या समाप्त किया जाए। जब दिमाग में अन्य विचार नहीं रहेंगे तो दिमाग खाली हो जाएगा और जब दिमाग खाली हो जाए तो उसमें केवल परमतत्व को ध्यान करो फिर चाहे किसी भी रूप में किसी भी शब्द में किसी भी ध्वनि में या किसी भी स्पर्श में। हर समय केवल उसी एक का ध्यान करते रहो उसी के बारे में सोचते रहो, विचार करते रहे और इतना विचार करो कि वह इंसान के शरीर और दिमाग की जरूरत बन जाए। जब ऐसा होगा तो उसी तत्व या परमतत्व पर ध्यान स्वतः ही घटित होने लगेगा। और जब यही ध्यान ज्यादा देर तक घटित होने लगेगा तो इसी से व्यक्ति समाधि में चला जाएगा। जिसे समाधि कहेंगे।
अब दिमाग से सांसारिक सामाजिक विचारों को दो प्रकार से समाप्त किया जा सकता है प्रथम समाज से एकदम दूर अलग थलग रहकर जैसे जंगलों में, पर्वतों पर ,गुफाओं पर इत्यादि स्थानों पर। दूसरा तरीका है हर वक्त उसी परमतत्व का ध्यान करते हुए जड़ भरत की भाँति अपना सांसारिक जीवन निर्वाह करना, जैसे मीरा बाई, सूरदास, मलूकदास, कबीरदास दास, शिरडी के साईं, मुईनुद्दीन चिश्ती, मंसूर अल हज्जाज, रूमी, फिरदौस, निजामुद्दीन औलिया, बाबा फरीद इत्यादि। यह तरीका कठिन है क्योंकि इसमें व्यक्ति को समाज के अंदर ऐसे रहना पड़ता है जैसे पानी में तेल रहता है, पानी में कमल का पत्ता रहता है। इसमें अपना प्रत्येक कर्म उसी परमतत्व को समर्पित करना पड़ता है और अपना अहम अपना अस्तित्व भी उसी को समर्पित करना पड़ता है। व्यक्ति इस तरह रहता है जैसे वह जिंदा भूत है, उसे कोई देखता भी नहीं, उसे कोई सुनता भी उसे ना तो लाभ पर खुशी होती है ना हानि पर दुख होता है। उसे अच्छे बुरे से कोई सरोकार ही नहीं वह तो बस अपने परमतत्व की स्थिति में एकत्व है। इन्ही दो तरीको से दिमाग से सांसारिक समाजिक विचारों को समाप्त किया जा सकता है।
सबसे मुख्य बात ध्यान घटित होने के लिए बिल्कुल भी जरूरी नहीं कि कोई व्यक्ति किसी विशेष मुद्रा में बैठे या खड़े हो बल्कि ध्यान का किसी भी प्रकार की शारिरिक मुद्रा से किसी भी प्रकार का कोई सम्बंध नहीं हैं। ध्यान किसी भी मुद्रा या स्थिति में घटित हो सकता है। बिल्कुल इसी प्रकार ध्यान के लिए जरूरी नहीं कि व्यक्ति किसी खास ध्वनि जैसे ॐ, या ॐ नमः शिवाय इत्यादि का प्रयोग करे क्योंकि ऐसी भी प्रकार की मुद्रा या ध्वनि से ध्यान का कोई सम्बंध नहीं हैं। ध्यान का जुड़ाव तो मात्र उससे से है जिसको माध्यम बनाकर व्यक्ति परमत्व को धारण करने का प्रयास करता है। फिर चाहे वह किसी भी भाषा से हो किसी भी धर्म से हो किसी भी जीव या वस्तु से हो क्योंकि समस्त ब्रह्मांड में जो कुछ है वह सब उसी परमतत्व का ही अंश है और इंसान अगर किसी भी एक अंश को भी अपने ध्यान कि धारणा बना लेगा तो ध्यान घटित होगा और व्यक्ति खोजी वैज्ञानिक की भांति उस परमत्व की भी खोज कर लेगा।
जिस किसी भी व्यक्ति में ध्यान घटित हो जाता है वह या तो ऋषि रमण हो जाता है, या ऋषि देवराहा बाबा हो जाता है या रामकृष्ण परमहंस हो जाता है किंतु यह सत्य है कि वह ना तो बाबा रामदेव जैसा होता, ना बागेस्वर धाम वाले बाबा जैसा होता ना कैलाशानन्दगिरी इत्यादि जैसे वर्तमान मठाधीस जैसा रहता। हाँ इनको शास्त्रों का अद्भुत ज्ञान होगा किंतु ये ध्यान धारण करने वाले नहीं है जो अध्यात्म का उच्चतम शिखर है, जो इनकी भेष भूषा या रहन सहन की स्थिति से पता चलता है क्योंकि जब व्यक्ति में ध्यान घटित होता है तो व्यक्ति की सांसारिकता को पूर्णतः समाप्त कर देता है। उसे फर्क ही नहीं पड़ता कि उसका शरीर किस स्थिति में है कहाँ है और क्यों हैं वह तो पतझड़ के पत्ते की भाँति हवा के हवाले हो जाता है। अर्थात उसका शरीर से कोई सरोकार ही नहीं रहता।
प्रशान्त सोलंकी
नई दिल्ली-07