*इश्क़ के कीड़े*

इश्क़ के कीड़े
डॉ अरूण कुमार शास्त्री
इश्क़ बेबाक होता होगा ,मगर हमने इसे चुपचाप सहा है।
दर्द का ये वो मंजर है जिसे सीने से लगा कर उफ्फ तक न किया है।
ज़ख्म हैं जो अब नासूर बन गए, मगर अपनी तकलीफ़ को किसी से न कहा है।
घुट रहे, घुटते रहे, लेकिन क्या मज़ाल, कि आवाज़ भी आई हो किसी को।
हमने ऐसी ही मोहब्बत को समर्पित, साक्षात जीवन तो जिया , लेकिन वसीला न किया है।
तुम मिले मिल कर दिखाए सपने, फ़िर कह के तख़लिया चल दिए।
हम रोए गिड़गिड़ाये, पैर पकड़े दिए वादों के अनेकों सबूत मगर न सुनी एक भी हमारी ।
बोले तब की बात और थी अब बदल गई है तासीर मौलाना तुम्हारी ।
जाओ हवा आने दो गुस्सा न दिलाइए, हम जो तैश में आए तो खैर नहीं होगी तुम्हारी।
इश्क़ बेबाक होता होगा ,मगर हमने इसे चुपचाप सहा है।
दर्द का ये वो मंजर है जिसे सीने से लगा कर उफ्फ तक न किया है।
ज़ख्म हैं जो अब नासूर बन गए, मगर अपनी तकलीफ़ को किसी से न कहा है।
अरूण का कायदा अब सुन लिजिए इश्क़ हो जाये तो तबक्को न दीजिए।
इल्म है सज़ा है इस इल्म के लिए न आदि है न कोई अंत बस इक बुलबुला है।
ज़ख्म हैं रिसता हुआ हकीकत में मगर न तो ढका है, और न ही खुला है।
ये होगा हरकिसी को मगर इसका n कोई कायदा न फायदा और न आदि न अंत , यकीं रखिए, ये वो सिलसिला है।