क्यों बुद्ध हुई न तुम नारी

क्यों बुद्ध हुई न नारी तुम?घर -बार बता क्यों न छोड़ा!
क्यों मोह नहीं तुमने त्यागा,कर्तव्य दुशाला क्यों ओढ़ा।
क्या सीमाएंँ रोकें तुमको,किन बंधनों ने रोका है पथ?
क्या भावुकता ने अटका दी,तेरे जीवन की गति स्पष्ट?
क्या समाज के बंधन थे भारी,या संस्कारों का बिछा जाल?
कर आत्मा की पुकार अनसुनी, चुपचाप सहती रही हर हाल?
हे नारी! तुम्हारी शक्ति अनंत,क्यों किया नहीं मन व्यथा का अंत ?
क्यों बुद्ध का मार्ग न चुना तुमने,तज भार,क्यों न बन गई संत!
मोह का बंधन, प्रेम की जंजीर,बंधन में स्वतंत्र, अद्भुत तस्वीर।
अंत:स्थल स्नेह का दीप प्रज्वलित,कर्तव्य की राह, सदा सुसज्जित।
क्यों बुद्ध हुई न नारी तुम? बुद्धि में तुम्हारी बसा ध्रुवतारा,
क्यों कर्तव्य में खोजा सारा संसार, क्यों बसी त्याग सृजनधारा।
जीवन की राहों पर अविरल,हर कदम नवल संघर्ष मोड़ा।
क्यों प्रेम की डोर में बंँधी रही,संसार का बंधन क्यों न तोड़ा?
रही त्याग मूर्ती सदा ही तुम,पर त्यागी तो बुद्ध कहलाए।
हे यशोधरा! सीता! उर्मिला,क्यों कर्तव्य पथ पर दीप जलाए।
करुणा की प्रतिमा हो तुम,फिर भी दुख क्यों नहीं छोड़ा?
ज्ञान की ज्योति जलाकर भी,अज्ञान का अंधकार क्यों ओढ़ा?
हाँ! त्याग से सुनो तुम्हारे ही,सिद्धार्थ बने हैं बुद्ध महान।
पर तुमने जो भी मार्ग चुना, क्यों अज्ञात रखी स्व की पहचान।
हाँ! बुद्ध हुई न कोई नारी ? प्रबुद्ध त्याग मूर्ती वह खास?
अब नारी महिमा त्याग समर्पण,सबके दिलों में सजीव आभास।
कभी तो छू लोगी तुम भी,बुद्धत्व की वो अनंत ऊँचाई।
क्योंकि हर नारी में निहित,प्रज्ञान की असीमित गहराई।
नीलम शर्मा ✍️