*चलो कहीं चले हम मंजिल की ओर*

चलो कहीं चले हम मंजिल की ओर
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चलो कहीं चले हम मंजिल की ओर
पर्वत शिखर पर हिमालय की ओर।
ले हाथों में हाथ यूँ चलेंगे साथ साथ,
जुबां से नहीं पर होगी इशारों से बात,
बेमौसम भी करनी होगी तपस्या घोर,
चलो कहीं चले हम मंजिल की ओर।
छाया तन–मन पर घना घोर अंधेरा,
उर के तल पर होगा कब नव सवेरा,
हिय में नृत्य कर रहे है मोरनी–मोर।
चलो कहीं चले हम मंजिल की ओर।
मन की वादी गहरी गहराई खाई सी,
सोई·सोई सी लगती है अलसाई सी,
दिल के हाथों चलता किस का जोर।
चलो कहीं चले हम मंजिल की ओर।
मनसीरत मन तीर्थ सा लगता पावन,
नयनों से बहते नीर जैसे बरसे सावन,
कब बदलेगा बेदर्दी ये विरह का दौर।
चलो कहीं चले हम मंजिल की ओर।
चलो कहीं चले हम मंजिल की ओर।
पर्वत शिखर पर हिमालय की और।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)