गीता के छन्द : सामान्य 2/5

सामान्य
सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के छन्द जन-मानस में रचे-बसे हुए है। सामान्य पाठ में इनकी उस विविधता का आभास नहीं होता है जो शास्त्रीय और वैज्ञानिक विवेचना से उद्घाटित होती है। अस्तु गीता के छन्दों की इस मनोहारी विविधता को निरखना-परखना सामाजिकों, अध्येताओं और मनीषियों के लिए अत्यधिक रोचक तथा उपादेय होगा।
गीता का स्रोत
महर्षि वेदव्यास विरचित विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य महाभारत में 18 पर्व हैं। इनमें से छठा पर्व भीष्म पर्व है। भीष्म पर्व में 4 उपपर्व हैं- 66वाँ जम्बूखण्ड विनिर्माण उपपर्व, 67वाँ भूमि उपपर्व, 68वाँ श्रीमद्भगवत्गीता उपपर्व और 69वाँ भीष्मवध उपपर्व। श्रीमद्भगवत्गीता को संक्षेप में भगवत्गीता अथवा गीता भी कहते हैं। इस कृति में सुविधा की दृष्टि से ‘गीता’ नाम का ही मुख्यतः प्रयोग किया गया है।
गीता के श्लोक
महाभारत को पाँचवाँ वेद माना गया है, इसलिए गीता के श्लोकों को वैदिक श्लोकों की कोटि में माना जाता है। वैदिक श्लोक को अपरिवर्तनीय मन्त्र माना जाता है अर्थात वैदिक श्लोक जैसा है, वैसा ही उसका छन्द विधान मान लिया जाता है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि यदि वैदिक श्लोक का छन्द-विधान लौकिक छन्द-विधान की दृष्टि से कुछ असंगत लगता है तो उसे असंगत नहीं कहा जाता है, अपितु उसके विधान को ही प्रमाणिक मानते हुए उसे एक नया नाम दे दिया जाता है। इस प्रकार के कुछ नियमों का उल्लेख यहाँ पर किया जा रहा है जिनको गीता के सन्दर्भ में समझना आवश्यक है-
(क) हिन्दी के लौकिक छन्द-विधान में मात्रोत्थान को व्यवधान माना जाता है जबकि वैदिक (और अन्य अनेक संस्कृत के) छन्दों में मात्रोत्थान एक सहज स्वीकार्य विधान है।
(ख) लौकिक छन्द-विधान में यति और उपरति का स्थान सदैव शब्द के अंत में माना जाता है जबकि वैदिक (और अन्य अनेक संस्कृत के) छन्दों में यति और उपरति का स्थान शब्द के मध्य में होना एक सामान्य विधान है।
(ग) लौकिक छन्द-विधान में यदि किसी निर्दिष्ट गण के स्थान पर कोई दूसरा गण आ जाये अथवा किसी स्थान पर वर्जित गण आ जाये तो इसे व्यवधान माना जाता है जबकि वैदिक छन्द-विधान में इसे एक सामान्य विधान माना जाता है। उदाहरणार्थ अनुष्टुप के विषम चरणों में चार वर्णों के बाद लगागा/यगण निर्दिष्ट है किन्तु वहाँ पर अन्य गण आने पर भी उसे वैदिक छन्द-विधान में एक सामान्य विधान के अंतर्गत ‘विपुला’ नाम से स्वीकार किया जाता है।
(घ) लौकिक छन्द-विधान में परम्परा से उपेंद्रवज्रा और इंद्रवज्रा छन्दों के सम्मिश्रण को उपजाति माना जाता है और अन्य छन्दों के सम्मिश्रण को सामान्यतः व्यवधान माना जाता है किन्तु वैदिक छन्द-विधान में इसे भी एक विधान माना जाता है। इसीलिए वैदिक छन्द-विधान में उपेंद्रवज्रा और इंद्रवज्रा के सम्मिश्रण को ‘मुख्य उपजाति’ तथा अन्य छन्दों के सम्मिश्रण को ‘मिश्रित उपजाति’ कहा गया है।
(च) लौकिक छन्द-विधान में यदि समान वर्णों के किसी छन्द में कोई चरण अधिक या कम वर्णों का हो जाये तो उसे व्यवधान माना जाता है किन्तु वैदिक छन्द-विधान में यह एक विधान है। जिस वैदिक छन्द के एक या अधिक चरणों में वर्णों की संख्या सामान्य से अधिक होती है उसे भुरिक् और जिसके एक या अधिक चरणों में वर्णों की संख्या सामान्य से कम होती है उसे निचृत् कहा जाता है।
भुरिक् और निचृत्
पूर्व विवेचना के अनुसार जिस वैदिक छन्द के एक या अधिक चरणों में वर्णों की संख्या सामान्य से अधिक होती है उसे भुरिक् और जिसके एक या अधिक चरणों में वर्णों की संख्या सामान्य से कम होती है उसे निचृत् कहा जाता है। गीता में भुरिक् छन्दों की कुल संख्या 5 है जिनमें से 1 अनुष्टुप तथा 4 त्रिष्टुप हैं। गीता में निचृत् का सामान्यतः कोई उदाहारण नहीं है किन्तु किसी भुरिक् में अधिक वर्णों वाले चरण के सापेक्ष छन्द की प्रकृति पर विचार करने से वह निचृत् हो जाता है।
गीता में अनुष्टुप भुरिक् का एक मात्र उदाहरण श्लोक 11.1 है जिसके प्रथम चरण में बृहती छन्द के 9 वर्णों वाले चरण का प्रयोग हुआ है-
गालल
मदनुग्र(हाय प)रमं (9 वर्ण, बृहती)
लगाल
गुह्यमध्यात्(मसंज्ञि)तम्। (8 वर्ण, अनुष्टुप)
लगागा
यत्त्वयोक्तं (वचस्ते)न, (8 वर्ण, अनुष्टुप)
लगाल
मोहोऽयं वि(गतो म)म। (8 वर्ण, अनुष्टुप)
(गीता 11.1)
गीता में त्रिष्टुप भुरिक् के 4 उदाहरण हैं श्लोक 2.6, 2.29, 8.10 और 15.3, जिनके अंतर्गत 11 वर्णों वाले त्रिष्टुप में 12 वर्णों वाले जगती छन्दों के चरणों का प्रयोग हुआ है, यथा-
(क)- राधा-गंगा-इंद्रवज्रा-ईहामृगी (भुरिक्) – 2.6 के चरण 1 और 2 में जगती का प्रयोग –
लगागा गागाल लगागा लगागा
न चैतद्/विद्मः क/तरन्नो/ गरीयो (राधा 12 वर्ण)
लगाल गालल लगागा लगागा
यद्वा ज/येम य/दि वा नो/ जयेयुः। (गंगा 12 वर्ण)
गागाल गागाल लगाल गागा
यानेव/ हत्वा न/ जिजीवि/षाम^- (इंद्रवज्रा 11 वर्ण)
गागाल गालल गागाल गागा
स्तेऽवस्थि/ताः प्रमु/खे धार्त/राष्ट्राः। (ईहामृगी 11 वर्ण)
(गीता 2.6)
(ख) – इंद्रवज्रा-रति-संशयश्री-गुणांगी (भुरिक्) – 2.29 के चरण 2 में जगती का प्रयोग –
गागाल गागाल लगाल गागा
आश्चर्य/वत्पश्य/ति कश्चि/देन^- (इंद्रवज्रा 11 वर्ण))
गागाल गालल ललगा लगागा
माश्चर्य/वद्वद/ति तथै/व चान्यः। (रति 12 वर्ण)
गागाल गागाल गागाल गागा
आश्चर्य/वच्चैन/मन्यः शृ/णोति^ (प्राकारबन्ध 11 वर्ण)
गागागा गागाल लगाल गागा
श्रुत्वाप्ये/नं वेद/ न चैव/ कश्चित्। (गुणांगी 11 वर्ण)
(गीता 2,29)
(ग) – उपेन्द्रवज्रा-गुणांगी-विशाखा-गति (भुरिक्) – 8.10 के चरण 4 में जगती का प्रयोग –
लगाल गागाल लगाल गागा
प्रयाण/काले म/नसाच/लेन^ (उपेन्द्रवज्रा 11 वर्ण)
गागागा गागाल लगाल गागा
भक्त्या युक्/तो योग/बलेन/ चैव^। (गुणांगी 11 वर्ण)
लगागा गागाल गागाल गागा
भ्रुवोर्म^/ध्ये प्राण/मावेश्य/ सम्यक् (विशाखा 11 वर्ण)
लगाल गालल ललगा लगागा
स तं प/रं पुरु/षमुपै/ति दिव्यम्। (गति 12 वर्ण)
(गीता 8.10)
(घ) वंशस्थ-इंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-उपेन्द्रवज्रा (भुरिक्) – 15.3 के चरण 1 में जगती का प्रयोग –
लगाल गागाल लगाल गालगा
न रूप/मस्येह/ तथोप/लभ्यते (वंशस्थ 12 वर्ण)
गागाल गागाल लगाल गागा
नान्तो न/ चादिर्न/ च संप्र/तिष्ठा। (इंद्रवज्रा 11 वर्ण)
गागाल गागाल लगाल गागा
अश्वत्थ/मेनं सु/विरूढ/मूल^- (इंद्रवज्रा 11 वर्ण)
लगाल गागाल लगाल गागा
मसङ्ग/शस्त्रेण/ दृढेन/ छित्त्वा। (उपेन्द्रवज्रा 11 वर्ण)
(गीता 15.3)
अब यदि निचृत् का उदाहरण देखना हो उपर्युक्त उदाहरण (क) में 12 वर्णों वाले पहले और दूसरे चरणों के सापेक्ष 11 वर्णों वाले तीसरे और चौथे चरणों पर विचार करने से यही छन्द निचृत् का उदाहरण हो जायेगा। अन्य उदाहरणों में भी ऐसा किया जा सकता है किन्तु वह उचित नहीं होगा क्योंकि बहुसंख्यक के सापेक्ष अल्पसंख्यक पर विचार करना अर्थात बहुसंख्यक को मुख्य मानना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।
दृष्टव्य :
ऊनाधिकेनैकेन निचृद्भुरिजौ।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 3.59)
निचृत् छन्दों का सस्वर पाठ करते समय इय् या उव् आदि को बढ़ाकर वर्णों को पूरा कर लिया जाता है जैसे निचृत् छन्द के उदाहरण स्वरुप गायत्री मन्त्र के चरण ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’ में 8 के स्थान पर 7 ही वर्ण हैं। इन्हें पूरा करने के लिए ‘वरेण्यम्’ को ‘वरेणियम्’ पढ़ लिया जाता है।
दृष्टव्य :
इयादिपूरणः
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 3.2)
सन्दर्भ : कृति ‘गीता के छन्द’, कृतिकार- आचार्य ओम नीरव 8299034545