*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम: कृष्णायन (काव्य)
लेखक: पंडित राधेश्याम कथावाचक
मूल प्रकाशन वर्ष: 1930 ईसवी
वर्तमान संपादित संस्करण: 2025
संपादक: हरिशंकर शर्मा
213, 10 बी स्कीम, गोपालपुरा बायपास निकट शांति दिगंबर जैन मंदिर जयपुर 302018 राजस्थान
मोबाइल 9257446828 तथा 946 1046 594
प्रकाशक: दृशी प्रकाशन
104 ,सिद्धार्थ नगर, मदरामपुरा सांगानेर ,जयपुर 302029 राजस्थान फोन +91- 82096 40202
drishtiprakashan@gmail.com
मूल्य: ₹350
समीक्षक: रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ, बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश 244901
मोबाइल 9997615451
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कृष्णायन: राधा-कृष्ण भक्ति का मधुर काव्य
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पंडित राधेश्याम कथावाचक का कृष्णायन-काव्य राधा को केंद्र में रखकर कृष्ण की गाथा गाता है। कृष्णायन में राधा श्रीकृष्ण की प्रेरणा और शक्ति हैं । वह कृष्ण को पूर्णता प्रदान करती हैं । जब तक राधा का संग रहा, कृष्णायन की कथा चलती रही और जब ग्यारह वर्ष की आयु में कृष्ण राधा से बिछड़े, कथा पर भी विराम लग गया।
कृष्णायन में कृष्ण का वह जीवन वृत्तांत है, जो उनकी बाल्यावस्था से संबंधित है। यह भी कम चमत्कारी और अलौकिक नहीं था। मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में कृष्णायन में कृष्ण द्वारा कंस का वध होते हुए दिखाया गया है। आठ वर्ष की आयु में महारास के प्रसंग हैं । इसी आयु में कृष्ण ने कंस के षडयंत्रों को विफल किया। राक्षसों पर विजय पाई तथा अपने दिव्य रूप के सौंदर्य से न केवल अपने जन्मदाता वसुदेव और देवकी को तृप्त किया अपितु अपने पालक पिता और माता नंद और यशोदा का मन भी मोहा। गोपियॉं उनकी प्रिय मित्र बनीं । गो-पालन के साथ उन्होंने ग्वालों संग सहज सखा भाव से बचपन का आनंद लिया। कालिय नाग पर नृत्य कृष्ण के इसी बाल्यावस्था का चित्र है।
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कृष्णायन का छंद विधान
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पंडित राधेश्याम कथावाचक ने अपने चिर-परिचित राधेश्यामी छंदों में इस संपूर्ण कथाक्रम को इतने प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है कि पाठक काव्य के प्रवाह में निमग्न होने के लिए विवश हो जाएंगे। राधेश्यामी छंद पर पंडित राधेश्याम कथावाचक का असाधारण अधिकार है। विषय को प्रस्तुत करने में यह छंद उनकी इच्छाओं का अनुकरण करते जान पड़ते हैं। इन छंदों को ऊॅंचे स्वर में प्रस्तुत करने में कथावाचक जी की सफलता सर्वविदित है। यह कृष्णायन के प्राण हैं ।
थोड़े-थोड़े अंतराल पर दोहा छंद भी एक निश्चित लयात्मकता में कृष्णायन को बॉंधते हैं। विभिन्न प्रार्थनाओं तथा मनोहारी गीतों के माध्यम से कृष्णायन के कवि ने काव्य को समृद्ध किया है। कुछ गजलें भी हैं, जो भक्ति-भाव पर आधारित हैं । इनका सौंदर्य भी देखते ही बनता है। कृष्णायन में उर्दू के उस समय प्रचलित शब्दों का प्रयोग करने में कवि ने परहेज नहीं किया है।
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सीता ही राधा
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कृष्णायन के प्रारंभिक प्रष्ठों पर ही कथावाचक जी ने राधा को सीता जी का अवतार घोषित किया है। यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो राधा और कृष्ण के परस्पर अलौकिक संबंधों को दर्शाती है।
कंस के अत्याचारों का विरोध करते समय कृष्ण की मुद्रा एक लोकप्रिय जननायक के अनुरूप कथावाचक जी ने दर्शाई है। यही भाव इंद्र-पूजा को अस्वीकार करते समय भी कृष्णायन की चेतना में हमें दिखाई देता है। परंपरागत रूप से भागवत की कथा का कृष्णायन में प्रस्तुतीकरण हुआ है। इस तरह प्राचीन कथा के मूल भाव को बनाए रखते हुए उसकी रसमयता को अपने ढंग से प्रस्तुत करने में कथावाचक जी की निपुणता को देखा जा सकता है। आइए, कुछ स्थानों पर काव्य के प्रवाह का आनंद उठाया जाए। कृष्णायन में कथावाचक जी लिखते हैं:
गोलोक वासिनी-महाशक्ति, वृषभानु लली कहलाएगी/ रामावतार की वैदेही, राधिका नाम से आएगी (प्रष्ठ 81)
राधेश्यामी छंद का प्रवाह निम्नलिखित स्थान पर अत्यंत तीव्रता से उपस्थित हुआ है:
ब्राह्मणगण प्राणायाम-कर्म, संध्योपासन में करते हैं/ हम वंशी वाले वही क्रिया, वंशी वादन में करते हैं/ जब इसमें फूॅंक लगाते हैं, तब श्वास उतरती-चढ़ती है/ जो देह सहित जीवात्मा को, बलवान निरोगी करती है
(पृष्ठ 142)
उपरोक्त छंद में कथावाचक जी ने निपुणता के साथ बांसुरी बजाने को जो ध्यान योग से जोड़ दिया है, वह अद्वितीय है।
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स्वदेशी की भावना का समर्थन
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कुछ स्थानों पर स्वदेशी और राष्ट्रीयत्व के स्वर भी प्रवाह में बुलंद हुए हैं। इस से तत्कालीन स्वाधीनता आंदोलन की भावना को शक्ति प्रदान करने की प्रवृत्ति मजबूत होती है । काली कमली कृष्ण के द्वारा धारण करने को जिस प्रकार से स्वदेशी भाव में स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से अभिव्यक्त किया गया है, वह कृष्णायन को वर्ष 1930 ईसवी में भारत का राष्ट्रीय काव्य बना देता है।
कमली वह देसी कपड़ा है, रंगत भी जिसमें देसी है/ ताना भी इसमें देसी है, बाना भी इसमें देसी है/ जातीय कर्म जो मेरा है, वह ही मैं प्रतिदिन करता हूॅं/ कमली ओढ़े वृंदावन में गौओं के साथ विचरता है
(प्रष्ठ 156ृ)
स्वदेशी का जिस तरह से स्वतंत्रता आंदोलन में प्रचार हुआ, उसको ध्यान में रखते हुए अगर हम कृष्ण के द्वारा कमली धारण करने को देसी कपड़े के भाव के साथ जोड़ेंगे तो स्वतंत्रता आंदोलन की पक्षधरता को अवश्य महसूस करेंगे। एक अन्य स्थान पर भी कृष्णायन में कथावाचक जी ने लिखा है:
एक वेष था एक ही, था सबका उपदेश/ एक जाति थी धर्म था, एक-एक ही देश
(पृष्ठ 141)
उपरोक्त दोहे में आजादी के आंदोलन में समस्त देशवासियों की एकजुटता प्रकट हो रही है।
आगे की पंक्तियों में तो इन ग्वालों को ‘आजादी के मतवाले’ ही एक तरह से कथावाचक जी ने घोषित कर दिया। लिखते हैं:
जो सुख था इन मैदानों में आजादी के मतवालों को/ वह सुख वह मौज नसीब कहॉं, महलों में रहने वालों को
(प्रष्ठ 141)
कृष्ण को भारत के उद्धार के साथ जोड़ने की भावना स्वयं देवकी ने कृष्णायन के प्रारंभिक प्रष्ठों पर अंकित कर दी है। उन्होंने कृष्ण से कहा था कि अब भारत ही तुम्हारा पिता है और भारत माता ही तुम्हारी माता है:
अब तक तो मुझसे नाता था, अब आर्य जाति से नाता है/ है भारत देश पिता अब से, भारत माता अब माता है (प्रष्ठ 97)
कंस को जालिम राजा और कृष्ण को महापुरुष मानते हुए जनता द्वारा कृष्ण का अभिनंदन करने की भावना प्रत्यक्ष रूप से कृष्णायन का विषय है। लेकिन कहीं न कहीं यह स्वतंत्रता आंदोलन में भी अंग्रेजों के अत्याचार और उनके विरुद्ध भारत के राष्ट्र नायकों के संघर्षों को जनता की ओर से मिल रहे समर्थन से भी जोड़ रही है। कथावाचक जी के यह शब्द ध्यान देने योग्य हैं:
जालिम राजा की प्रजा सदा, नवजीवन को अकुलाती है/ आता है कोई महापुरुष, तो हृदय खोल अपनाती है (प्रष्ठ 234)
इस तरह जितना संभव हो सका, कृष्ण के जीवन चरित्र की पौराणिकता को बनाए रखते हुए कवि ने तत्कालीन भारत के राष्ट्रीय स्वर भी कृष्ण की गाथा में प्रमुखता से शामिल किए हैं।
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गोवर्धन पूजा
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इंद्र की पूजा को कृष्णायन के कवि ने अंधश्रद्धा अथवा रूढ़ि माना है। यह प्रतिवर्ष का रिवाज पड़ गया था, ऐसा कवि का कहना है। कथावाचक जी ने बृजवासियों से उनकी आंतरिक शक्ति को मजबूत करने का आह्नवान किया। कृष्ण ने नंद बाबा से कहा:
बाबा यदि वर्षा नहीं हुई, तो कुऍं खुदा सकते हैं हम/ यमुना मैया से नहर काट, खेतों तक ला सकते हैं हम/ इस लिए आज्ञा हो जाए, अब से गोवर्धन पूजन हो/ गोवर्धन का भी सोचें तो, है अर्थ यही गो-वर्धन हो (पृष्ठ 178)
पुरानी कथा को कथावाचक जी ने नया पुट भी दिया है। कृष्ण ने अपनी उंगली पर गिरिराज को उठाया अवश्य था, लेकिन सब कार्य भगवान के करने से ही नहीं होता । मनुष्यों को भी पुरुषार्थ अवश्य करना पड़ता है। इस विचार को बल देते हुए कथावाचक जी ने कृष्ण के मुख से गोवर्धन पूजा के प्रसंग में कृष्णायन में कहलवाया:
गउओं की सेवा के बल से, अब यह गिरिराज उठाओ तुम/ मेरा भी हाथ लगेगा पर, पहले लाठियॉं लगाओ तुम (प्रष्ठ 182)
अर्थात जब सब लोग लाठियां लगाएंगे, तभी कार्य की सिद्धि होगी।
विषय के मूल में वैज्ञानिक दृष्टि से भी कथावाचक जी ने दिमाग लड़ाने का काम किया है। उन्होंने महसूस किया कि गिरिराज को उंगली पर उठाने की कथा तो एक प्रतीकात्मक है। इसके मूल में जरूर कोई वैज्ञानिक सोच विद्यमान रही होगी। इसलिए उन्होंने लिखा:
वह एक जगह थी गिरिवर में, जिस जगह सुरक्षित थे जल से/ पर समझे यह गिरिराज उठा, लाठी या उंगली के बल से (प्रष्ठ 185)
कथावाचक जी तो राधा रानी के भक्त थे। हर कार्य का श्रेय उन्होंने राधा जी को ही दिया है। गोवर्धन पर्वत उंगली पर उठ गया, यह भी राधा जी का ही महात्म्य कवि ने माना है:
वह प्रभुताई राधा की है, जिसने यह महाकार्य साधा/ भवबाधा तुझे मिटानी हो तो, तोते भज राधा-राधा (प्रष्ठ 192)
तोता और मैना में किसी ने राधा को बड़ा कहा और किसी ने कृष्ण को बड़ा कहा, लेकिन कथावाचक जी ने सारे झगड़े मिटाते हुए दो पंक्तियों में राधेश्याम मत का प्रतिपादन इस प्रकार कर दिया:
आपस में व्यर्थ झगड़ते हो, सिद्धांत तुम्हारा आधा है/ राधा से हैं श्री कृष्णचंद्र, श्रीकृष्णचंद्र से राधा हैं (प्रष्ठ 194)
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महारास
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भगवान कृष्ण के महारास पर भी कृष्णायन के कवि ने श्रद्धापूर्वक लेखनी चलाई है। महारास की अलौकिकता को कथावाचक जी ने प्रखरता से पाठकों के सामने रखा है । वह लिखते हैं:
मेरा निष्काम रूप वह है, जिसमें शंका का नाम नहीं/ मैं जिस आनंद धाम का हूॅं, उस जगह काम का नाम नहीं (प्रष्ठ 202)
महारास के समय कृष्णायन ने कृष्ण की आयु आठ वर्ष बताना आवश्यक समझा। जब बंसी की धुन पर गोपियां महारास के लिए कृष्ण के पास खिंची चली आईं, तो कृष्ण ने उनसे प्रश्न किया कि अपना घर छोड़कर मेरे पास कैसे आ गईं ?
गोपियों ने जो उत्तर दिया, वह ‘महारास’ की विशेषता और पवित्रता दोनों को स्थापित करने वाला है। गोपियॉं कहती हैं:
तुम आठ वर्ष के बालक हो, तुमसे हमको लज्जा क्या है/ तुम एक और हम हैं अनेक, संकोच और शंका क्या है/ पर नहीं भूलती हैं हम सब, इस समय नहीं तुम बालक हो/ वंशी ने हमें बताया है, सर्वव्यापक हो जगपालक हो/ सर्व व्यापक के नाते से, हमने तुमको अपनाया है/ पतियों में तुमको पाया है, तुम में पतियों को पाया है (प्रष्ठ 209)
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संपादक हरिशंकर शर्मा की भूमिका
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पंडित राधेश्याम कथावाचक जी की कृष्णायन को लगभग एक सदी के बाद नए कलेवर में हिंदी साहित्य जगत के सम्मुख प्रस्तुत करने का श्रेय हरिशंकर शर्मा को जाता है। लगभग सत्तर पृष्ठ की अपनी विस्तृत भूमिका में आपने विक्रम संवत 1836 से अर्थात लगभग विगत ढाई सौ वर्षो में प्रकाशित ग्यारह कृष्णायन पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय भी दिया है तथा यह भी कहा है कि पंडित राधेश्याम कथावाचक की कृष्णायन का समुचित मूल्यांकन साहित्य-संसार में नहीं हो पाया।
हरिशंकर शर्मा ने कथावाचक जी के कृष्णायन को कृष्ण के लोकनायकत्व का स्वरूप बताया है तथा कहा है कि राष्ट्रीय अखंडता एवं एकता में ही यह लोकनायकत्व छिपा है।
आशा की जानी चाहिए कि संपादक हरिशंकर शर्मा के कृष्णायन-प्रयास का समुचित आदर और मूल्यांकन साहित्य जगत् में हो सकेगा तथा एक सदी के बाद कृष्णायन को पुनर्जीवन भी मिलेगा और यह राधेश्याम रामायण की भांति घर-घर में गाई भी जा सकेगी। कथावाचक जी द्वारा 1926-29 ईसवी में प्रकाशित भ्रमर पत्रिका के राधा-कृष्ण के चित्रों को कृष्णायन में स्थान प्रदान करने से पुस्तक का महत्व और भी अधिक हो गया है। छपाई अच्छी है। कवर आकर्षक है।
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राधेश्याम कथावाचक की कृष्णायन (कुंडलिया)
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राधा-राधा कह रहे, पंडित राधेश्याम
कृष्णायन के केंद्र में, है राधा का नाम
है राधा का नाम, कथा बचपन की गाते
कारागृह में जन्म, कंस-वध पर रुक जाते
कहते रवि कविराय, वृत्त यह यद्यपि आधा
अपने में संपूर्ण, दीखतीं जब तक राधा