दुख
मेरे भीतर सब रूखा सूखा है , एकदम दग्ध, कितनी भी कोशिश कर लूं न कविता बन पड़ती है न कहानी ,ना कोई लेख ।
मेरे मित्र ने कहा बुरा लगे तो किसी मुद्दे को पकड़ कर अपने भाव निचोड़ दो, मैने कोशिश की पर निचोड़ने के लिए रस , गीलापन भी जरूरी होता है ,जहां आंसुओ ने सारी नमी सोख ली हो , नितांत रुग्णता हो वहा निचोड़ने के लिए कुछ नहीं मिलता तो आदमी इस रिक्तता पर भी झल्ला उठता है।
इतने खोखले हो जाते है हम अंदर से किसी को खोकर , खोने वाला ही समझ सकता है।समझ नही आता जीवन इस रीतेपन के कारण पूरा है या इसके बिना पूरा था।
हर वक्त दिमाग में धुआं धुआं, यादें।
कभी – कोई याद इतनी चुभन देती है की आदमी का रक्त आंखो की कोरो से भेष बदल कर बह जाता है ,और कभी चाहने पर भी आंसू नहीं निकलते,बस अंदर ही अंदर एक कचौट सी उठती रहती है।
जिसने कभी किसी अपने को नही खोया ,वो इन बातों को अभी नही समझ सकता ,पर ऐसे लोग हैं ही कितने?
किसी ने पहले खोया कोई बाद में खोएगा, पर खोएंगे सभी।अपनो को भी और अपने को भी।
किसी का घाव जल्दी भर जाता है और किसी का घाव नासूर बन जाता है।
जिसकी आप कभी कल्पना भी नहीं करते वो हो जाता है , तो झटका लगना स्वाभाविक ही है।
जिसके साथ दिन- रात साथ उठना- बैठना , सोना ,हंसना रोना, गाना हर चीज हो , वो ही चला जाए और आदमी को फरक न पड़े तो वो कोई आदमी न हुआ ।
किस्मत में ये पीड़ा लिखी है , जिसे भोगना है हर हालत में ,इसे स्वीकार करना है और जब अंदर की बैचनी बढ़ जाए तो कुछ भी करना है पर हर हाल में जीना तो है।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी,
जब जीना नही है फिर भी जीना पड़ जाए।
और जब मरना नही हो फिर भी मरना पड़ जाए।
🙂
Miss you jiji
Priya