विरह के अवसाद
///विरह के अवसाद///
राग रंग नव किल्लोल,
सरसता जो फूलों की मोल।
मोह ले सागर के भी पार,
उपजता उर में मधुता घोल।।
लूटा दूंगी तुझ पर अंबार,
सहज है प्राणों का संपात।
जगत की चित्कारें सुन सुन ,
उठ आया यह विमल विराग।।
अरे ये मधु मानस के फूल,
तुझमें है मकरंद अथाह।
सींच जन जीवन में आज,
जगा दे जग में वह निर्वाह।।
सुने पथ का पथिक जो,
पकड़ कर जगत की बांह ।
चलता रहा क्यों संसार में,
जग की सूनी बारिद राह।।
लेगा नहीं क्या प्रण प्राण,
आलोक पुंज कंपित प्रसाद।
उठता रहा बनकर धूम सा,
स्वर नाद का अन्तर निनाद।।
सरसता से ही कंठ सूखा,
उर ने विकलता मोल ली।
ले बिखेरता अंशु पथ पर,
वाति ने कपाटें खोल दी।।
कैसा रहे बन आज मन,
चुकता नहीं वह प्राणपण।
जीवन उमंग नव तान की,
मन में जागी वह सुलगन।।
लजीली लताओं ने अंक में,
भर ली अजान मधु तान।
जल यहीं दीपक सी आस,
तू होगी मुक्ति मणि गान।।
झर विरह के अवसाद,
यह चिर व्यथा का प्रभात ।
उर नील तन झील का,
क्षण क्षण उर्मियों का संघात।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)