क़हकहे ख़ूब लगे रात की अँगड़ाई तक

ग़ज़ल
1,,,
क़हकहे ख़ूब लगे रात की अँगड़ाई तक ,
शोर फिर जाके थमा बज़्म की शहनाई तक ।
2,,,
गुल महकते हैं यहाँ रोज़ ही क़ुरबानी के ,
खो गईं किरणें भी सुबह की आराई तक।
3,,,
रोक सकता है भला कौन किसी बानी को ,
गूँज उठती है ग़ज़ल , बज़्म पज़ीराई तक ।
4,,,
कौन जाने है बहारों के हँसी नख़रों को,
फूल खिलते ही रहे यार ये तन्हाई तक ।
5,,,
सबने देखा है , मेरे हँसते हुए चेहरे को ,
कौन पहुँचा है मेरे ज़ख्म की गहराई तक ।
6,,,
ज़िक्र छिड़ कर जो सरे आम चला सड़कों पर,
बात पहुँची ही कहाँ , आज भी माँ-जाई तक ।
7,,,
लफ़्ज़ हों “नील” या फूलों से भरा घर आँगन ,
खुशबुएँ उड़ति फिरें ख़ूब ही पर जाई तक ।
✍️नील रूहानी,,, 20/01/2025,,,,