दोहा पंचक. . . निर्वाण
दोहा पंचक. . . निर्वाण
जब होता है सूक्ष्म का, काया से निर्वाण ।
अनुत्तरित है आज तक, कहाँ गए वो प्राण ।।
आदि – अन्त तो जीव की, साँसों के अध्याय ।
इन पृष्ठों से मुक्ति का, कोई नहीं उपाय ।।
जब तक साँसें देह में, चलें चले संग्राम ।
चौरासी के चक्र से, सिर्फ बचाते राम ।।
अन्तिम घट तक सब चलें, फिर सब छोड़ें हाथ ।
चल देती यह जिंदगी, छोड़ यहाँ के साथ ।।
मौन हुई जब देह सब, करने लगे विलाप ।
मुखरित उसके कर्म फिर , होते अपने आप ।
सुशील सरना / 18-1-25