मर्यादा
पथ, मर्यादा चल नहीं सकते
निकालने लगे हैं मुझमें ही दोष ।
मर्यादाएं सारी तोड़ चुके हैं
विकार हाथों में सभी बिके हैं
चलते ऐसे ही, नहीं थके हैं
बचा नहीं है कुछ भी होश ।
पथ, मर्यादा…..
सो जाते हैं भरकर उदर
मैंने प्यार दिया सहोदर
प्रेम न देते, देते अनादर
बस विनाश को दिखाते हैं जोश ।
पथ, मर्यादा…..
खो दिया है कती विवेक
पीड़ा देते हैं, जो नेक
मात्र यही लक्ष्य है एक
भरे रहते हैं, सदैव आक्रोश ।
पथ, मर्यादा…..
दोष निकालते, बचाव करने को
कुछ भी न बचा सुधरने को
सही कृत्य मानते, मारने, मरने को
हो चुके हैं, कती अब बेहोश ।
पथ, मर्यादा…..
आचार्य शीलक राम