अनकही अधूरी ख्वाहिश
विषय _ अनकही अधूरी ख्वाहिश
अनकही सी ख्वाहिश है एक मन के कोने में
मगर किसी से बयां ये दिल कभी कर नहीं पाया
बचपन ने ही कुछ ऐसे दर्द दिए
बचपन कभी बचपन सा हो नहीं पाया
जब देखती थी किसी को अपनी पहचान बनाते हुए
तो दिल में हमेशा एक उम्मीद बढ़ती थी
मगर खुद को कैसे आगे बढ़ाऊं उस पल की हर परिस्थिति मुझसे लड़ती थी
मेरी ख्वाहिश थी कि मैं ख़ूब पढूं और पढ़ लिखकर एक मुकाम हासिल करूं
मेरा सपना था जो बनने का वो उसे मैं हकीकत करूं
मगर सपने और हक़ीक़त में फर्क होता है
सपना अधूरा होता है और हक़ीक़त कुछ और होती है
अधूरी रह गई जो ख्वाहिश उसके लिए कभी कभी आज भी हमदर्दी होती है।
फिर भी मैंने थोड़ा ही सही मगर ख़ुद को मान दिया है
भाव होता है समर्पण का वो अपने भी नाम किया है।
रेखा खिंची ✍️✍️