चुभन काँटों की

चुभन काँटों की हो या शब्दों की
मन को सताती है ये घाव कर जाती है
अगन ज्वाला की हो या ह्रदय की
तन को जलाती है खाक कर जाती है
न बोलूँ तो मैं इस जमाने में
न बोलना भी मेरा सबको खलता है
बोलूँ अगर तोलकर लब्जों को
तो भी अर्थ कुछ और ही निकलता है
चुभन काँटों की हो……….
क्यों बिगड़ते हैं यूँ जमाने में
रिश्ते भरोसे विश्वास समझदारी के
क्यों बिझड़ते हैं यूँ अपनों से
बतलाकर काम फर्ज जिम्मेदारी के
चुभन काँटों की हो………
लोग खुश होते हैं जमाने में
दूजे को मुशीबत में घिरा देखकर
खिलखिलाते या तो हँसते हैं
ठोकर लगी यूँ राह में गिरा देछकर
चुभन काँटों की हो…….
“V9द” काँटों में रहना सीख
रहो इनमें तो ये हमेशा नहीं चुभते
फ़लसफ़ा हैं ये तो जिंदगी का
कि बिना काँटे ये गुलाब नहीं उगते
चुभन कांटों की हो……..