तुम्हें,
तुम्हें,
सोचते ही
एक कल्पना उठती है
कानों में
शहद सी हंसी घुलती है
रंगीन दुपट्टा हवा में लहराता
कोई फूलों की
किनारी वाली साड़ी
गजरे वाले केश
जिनमें लिपटे हों मोती
आंखों की कोर
जैसे अमावस की रात
शहद के प्याले से ओंठ
शरद् पूर्णिमा के चांद सा चेहरा
पत्तों के सरसराहट सी
चूड़ियों की खनक..
नदी तट से
लहरों के टकराने से उठती
ऐसी हो पायल की झनक
बिजली की चमक
सी मोहक मुस्कान
झंकृत वीणा से बोल
ऐसी ही हो तुम
अप्रतिम, मोहक
किसी कवि की
कल्पना का साकार प्रतिमान
हिमांशु Kulshrestha