चाटते हैं रात दिन थूका हुआ जो।
चाटते हैं रात दिन थूका हुआ जो ,
गीत स्वाभिमान के वे गा रहे हैं।
नाम पद की लालसा में व्यथित होकर,
कूट कीचड़ में मलिन मन लोटते हैं,
चाह है दो बूंद मिल जाए प्रशंसा ,
रेत में भी सलिल को वह ढूंढते हैं,
सोचता रहता हूं भावों के मसीहा,
कौन सी गति है जिसे ये पा रहे हैं।
चाटते हैं रात दिन थूका हुआ जो ,
गीत स्वाभिमान के वे गा रहे हैं।
मेरु दंड अस्थियां सब गल चुकी हैं,
तरलता उनकी जगह अब डोलती है,
लाभ की थोड़ी सी गुंजाइश दिखे तो,
मेरु दंड को तुरत वह मोड़ती है,
ख्याति के प्रेतों के ऐसी जकड़ में हैं,
मंत्र सारे भूलते ही जा रहे हैं।
चाटते हैं रात दिन थूका हुआ जो ,
गीत स्वाभिमान के वे गा रहे हैं।
किसलिए प्रपंच सब यह खेल सारा,
सम्मिलित इसमें है क्यों संसार सारा,
गुम हुए व्यक्तित्व कितने सूर्य जैसे,
समझता है क्यों नहीं यह लघु सितारा,
एक कण को भी किरण ये दे न पाए,
सूर्य से भी श्रेष्ठ हैं बतला रहे हैं।
चाटते हैं रात दिन थूका हुआ जो ,
गीत स्वाभिमान के वे गा रहे हैं।
Kumar Kalhans