एक यह भी सच्चाई है कि इंसान कि जैसे–जैसे समझ बढ़ने लगती है त
एक यह भी सच्चाई है कि इंसान कि जैसे–जैसे समझ बढ़ने लगती है तो वह अकेला हो जाता है। बेहतर सामाजिक संतुलन हेतु कठिनाई होने लगती है। सत्य बोलने से रिश्ते खराब होने लगते हैं और चुप रहने से स्वयं विकार से ग्रस्त होने लगते है।
इसलिए बेहद जरूरी है कि स्वयं की समझ को आंतरिक शक्ति बनाएं और परिस्थिति के अनुरूप जीना सीखें। एकाग्रता कभी भी डिप्रेशन नहीं बनना चाहिए। स्वयं को जीतना ही जीवन की सबसे कठिन स्पर्धा होती है। जीतना सीखें।