स्वप्निल आँखों से पूरित
विकारों की निरंतर श्रृंखला
अब बेल सी बढ़ती ,
पनपती दूब सी नित वो
अब असहाय सी लगती।
अगर ऐसे रहा चलता,
मलिन मन चैन क्यों पाये ?
रमा मन निर्विकारों में
उसे साकारता भाये।
ज्ञान की दिव्य धारा से
छटां अज्ञान है मेरा
विराजित तम रहा हिय में
प्रकाशित हो चला मेरा।
सगुण चेतन से है पूरित
बनी यह भूमि है न्यारी
सजा निर्गुण से है व्यापक
अखिल ब्रह्माण्ड यह सारी।
ऋणी हर रोम है मेरा
प्रकृति के उन प्रयासों का
स्वप्निल आँखों से पूरित
स्वप्न उन बीती रातों का।
सरीखा स्वप्न सी है ये मही
सरस वेदों की ध्वनि गुंजित
ऋषि गण है समाधि में
समग्र वातावरण पुंजित।
परिष्कृत भावना हो कल
सभी धरती के मानव का
पुष्पित पल्लवित प्रमुदित
हो बेल लोक मानस का।
अतिशय दीर्घ व्योमों का
सुगन्धित हर रहे कोना
यही एक इच्छा है मेरी
उसी की गोद बस सोना।
वांछा एक नूतन सा विहान
जीवन मेरे आये
तेरी यादों के अमृत लिए
खुल नहीं नैन जब पाये।
ज्ञानदीपक आलोकित हो
दिव्य हर आत्मा निर्मेष
सभी की प्रीति तुममे हो
जीवन जब तलक यह शेष
निर्मेष