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15 Mar 2025 · 6 min read

मेरी कुंडलियाँ ( समीक्षा )

समीक्ष्य कृति: मेरी कुंडलियाँ
कवयित्री: डाॅ सरला सिंह ‘स्निग्धा’
प्रकाशक: अंतरा शब्दशक्ति, वारासिवनी, बालाघाट (म प्र)
संस्करण: प्रथम (2020) पेपरबैक
मूल्य: ₹ 90/-
सम्प्रति अनेक कवि और कवयित्रियाँ लोककाव्य विधा कुंडलिया लेखन में प्रवृत्त दिखाई देते हैं। यह छंदबद्ध काव्य और कुंडलिया छंद के लिए एक शुभ संकेत है। डाॅ सरला सिंह ‘स्निग्धा’ उन कवयित्रियों में से एक हैं जिन्होंने कुंडलिया छंद लेखन को लेकर गंभीरतापूर्वक कार्य किया है। उनकी एक कुंडलिया छंद की पुस्तक ‘मेरी कुंडलियाँ’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है। इस संग्रह में विविध विषयों पर आधृत कुल एक सौ छंद हैं। डाॅ सरला सिंह स्निग्धा मेरे संपादकत्व में श्वेतवर्णा प्रकाशन से प्रकाशित ‘इक्कीसवीं सदी की कुंडलिया’ का भी हिस्सा रही हैं। दूरभाष पर वार्ता के क्रम में मुझे यह जानकारी मिली कि इनकी कुंडलिया छंद की एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है तो मैंने ‘स्निग्धा’ जी से पुस्तक की एक प्रति भेजने का अनुरोध किया। वे सहर्ष सहमत हो गईं और ‘मेरी कुंडलियाँ’ की एक प्रति मुझे उपलब्ध करवा दी। पुस्तक से गुजरते हुए मैंने सोचा क्यों न इस पुस्तक के छंदों से अन्य लोगों को भी परिचित कराया जाए जिससे लोगों को इस कृति के विषय में विशद जानकारी हो सके।
‘मेरी कुंडलियाँ’ संग्रह में विविध विषयों से संबंधित कुल एक सौ छंदों को स्थान दिया गया है।कृति के आरंभ में वेणी, कुमकुम, काजल, गजरा, पायल,कंगन बिंदी, डोली,कजरा, आंचल, चूड़ी और झुमका जैसे विषयों को आधार बनाकर मनोरम छंदों की सर्जना की गई है।
महिला अत्याचार आज की बहुत बड़ी समस्या है। चाहे घर हो या बाहर, हर जगह उन्हें अन्याय और अत्याचार का सामना करना पड़ता है। चूँकि सरला जी स्वयं एक महिला हैं इसलिए वे महिलाओं की प्रत्येक समस्या से अच्छी तरह परिचित हैं। चुपचाप बर्दाश्त करते जाना कभी भी समस्या का समाधान नहीं होता। मुखर होकर अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी होती है। इसके लिए अंदर के डर को मिटाकर आगे बढ़ना होता है। सरला जी कहती हैं कि अन्याय और अत्याचार सहते हुए सदियाँ व्यतीत हो गईं लेकिन तू अब तक नहीं चेती। अब ,वह समय आ गया है जब तुझे अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए आगे आना होगा।
बहना तुम डरना नहीं, बनो बहादुर वीर।
छोड़ो बनना तुम कली, रखो हाथ में तीर।।
रखो हाथ में तीर, करें अब वार न कोई।
बीती सदियां आज, रही तू अब तक सोई।।
कहती सरला आज, कभी अन्याय न सहना।
भाई का आशीष, सदा खुश रहना बहना ।।19 ( पृष्ठ 14)
बढ़ता प्रदूषण एवं ग्लोबल वार्मिंग प्रत्येक जागरूक नागरिक के लिए चिंता का विषय है। विकास के नाम पर जिस तरह पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है ,वह भविष्य के खतरे का आमंत्रण है। धरती को हरा-भरा तथा सुंदर बनाने के लिए सभी को मिलकर प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन का प्रयास करना चाहिए। वन, पर्वत, नदी ,पहाड़ तथा जीव-जंतु धरती के पारिस्थितिकीय संतुलन के लिए सभी की आवश्यकता है। वन तो हमारी प्यारी-सी धरती की शान हैं।
धरती है गरिमामयी, वन है इसकी शान।
मत काटो तुम वृक्ष को, इतना कहना मान।।
इतना कहना मान, सभी मिल वृक्ष लगायें।
बाग बगीचा लगा, धरा को चलो बचायें।।
कहती सरला बात, सभी से विनती करती।
आओ मिलकर आज, सजायें अपनी धरती ।। 39 ( पृष्ठ 20)
‘मन के हारे हार है,मन के जीते जीत।’ कुछ ऐसा ही भाव डाॅ सरला सिंह ‘स्निग्धा’ जी के निम्नलिखित छंद में व्यक्त हुआ है। व्यक्ति को आशा और विश्वास के साथ लक्ष्य की ओर बढ़ना होता है, तभी उसे मंज़िल की प्राप्ति होती है। ‘सब कुछ तेरे हाथ’ न केवल आत्मनिर्भरता का भाव जाग्रत करता है अपितु ‘एकला चलो रे’ तथा ‘दैव दैव आलसी पुकारा’ के भाव को दृढ़ करते हुए भाग्य के भरोसे न बैठकर कर्म प्रधान बने रहने की सीख भी देता है।
उड़ना सीधे क्षितिज तक, रखकर दृढ़ विश्वास ।
सबकुछ तेरे हाथ में, रखकर ऐसी आस ।।
रखकर ऐसी आस, बढ़ो तुम सबसे आगे।
करना ऐसे काम, नींद में सोते जागे।।
कहती सरला बात, नहीं तुम पथ से मुड़ना।
धरती की क्या बात, चांद सूरज तक उड़ना।। 66 ( पृष्ठ 29)
एक माँ के लिए अपने लाल की तोतली बातें कितनी सरस और मनोहर लगती हैं ,वह उसकी बातों को सुनकर किस तरह हर्षित होती है इसका जीवंत चित्रण छंद में किया गया है। वात्सल्य रस से परिपूर्ण इस छंद में कवयित्री को लगता है कि इस तरह का पुत्र व्यक्ति को किस्मत से मिलता है। जब वह डगमगाते हुए चलता है और तुतलाकर बातें करता है तो हर देखने सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है।
बातें करता वह सखी, कितनी मीठी आज।
माता है पुलकित बड़ी, करती सुतपर नाज।।
करती सुतपर नाज, लगे हर्षित बहु माता।
इतना सुन्दर पूत, मनुज किस्मत से पाता।।
कहती सरला आज, लगे बातें सौगातें।
चलता डगमग पांव, करे तुतलाकर बातें ।।77 ( पृष्ठ 33)

डाॅ सरला सिंह ‘स्निग्धा’ द्वारा रचित इस संग्रह के कुछ छंद ऐसे भी हैं जो कुंडलिया छंद के मानक पर खरे नहीं उतरते। ऐसा शायद इसलिए है कि ये आपकी आरंभिक दौर की कुंडलियाँ हैं। यदि इस कृति के छंदों को थोड़ा और समय दिया जाता तथा इन्हें तराशकर सुघड रूप देने की कोशिश की जाती तो इस तरह की त्रुटियाँ नहीं रहतीं। मेरी कुंडलियाँ कृति का निम्नलिखित छंद ‘धरती’ शब्द से आरंभ किया गया है परंतु इसका समापन ‘सजना’ शब्द पर किया गया है।
धरती सजना के लिए, हर दिन सुन्दर रूप।
सजना को भाये नहीं, उसको लगे कुरूप ।।
उसको लगे कुरूप, करें बस अपने मनकी ।
दिलकी सुनें न बात, उसे सूझे बस धनकी ।।
कहती सरला राज, रोज वह जतन है करती।
करती विनती आज, चले आओ अब सजना ।।70 (पृष्ठ-31)
मात्रिक छंदों की सर्जना के समय मात्र मात्राओं की गणना पूरी कर देना ही पर्याप्त नहीं होता। छंद की आंतरिक लय के लिए कलों के उचित विधान का पालन करना भी आवश्यक होता है। यदि कलन का ध्यान नहीं रखा जाता तो छंद के चरण की मात्राएँ तो पूर्ण रहती हैं परंतु लय बाधित हो जाती है। निम्नलिखित छंद के चतुर्थ चरण के उत्तरार्द्ध में कुछ ऐसी ही त्रुटि है-
कविता ऐसी रच सदा, करे कलुषता दूर।
जानी सम आंखें खुलें, भरे ज्ञान भरपूर ।।
भरे ज्ञान भरपूर, बढ़े सब में चतुराई।
आपस में हो प्यार, करें न कोई लड़ाई।।
कहती सरला आज, करो रचना सम सविता।
बहती पावन धार, कहें ऐसी हो कविता ।।15 ( पृष्ठ 12)
यदि छंद में किसी शब्द के साथ लिंग दोष होता है तो वाचन करते समय वह दोष बरबस ही अखरने लगता है। अधोलिखित छंद में कवयित्री ने ‘देह’ शब्द का प्रयोग पुल्लिंग के रूप किया है जबकि ‘देह’ शब्द स्त्रीलिंग है। अतः चरणांश होना चाहिए था- ‘देह तक साथ न जाती।’ इसी छंद में ‘काहे’ जैसा देशज प्रयोग भी किया गया है जो कि खटकता है।
मानव है आतुर बड़ा, पाने को सब आज।
भूला पागल है यही, आता कब कुछ काज।।
आता कब कुछ काज, देह तक साथ न जाता।
माया का सब खेल, नहीं कुछ मानव पाता।।
कहती सरला आज, बना काहे तू दानव।
करले अच्छे काम, और सच्चा तू मानव ।।86 ( पृष्ठ 36)
इस कृति के कुछ छंदों में ‘वो’ सर्वनाम का प्रयोग किया गया है। आम बोलचाल में वह और वे सर्वनाम के लिए उच्चारणगत दोष या मुख-सुख के कारण ‘वो’ का प्रयोग मान्य होता है परंतु लिखित रूप में ‘वो’ का प्रयोग वर्जनीय होना चाहिए।
समग्रतः दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है कि ‘मेरी कुंडलियाँ’ के छंद भाव की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं। भाषा-शैली भी विषयानुरूप है तथा श्रृंगार, वात्सल्य, शांत आदि रसों का परिपाक बखूबी हुआ है। समाज और जीवन की विविध समस्याओं और विद्रूपताओं को चित्रित करने में कवयित्री ने श्रमसाध्य कार्य किया है। यह पुस्तक कलेवर की दृष्टि से भले ही छोटी हो किंतु भाव एवं कुंडलिया छंद की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
मैं इस कृति के प्रणयन के लिए डाॅ सरला सिंह ‘स्निग्धा’ को अशेष शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह आपको सतत सृजनशील बनाए रखे और आप इसी तरह छांदसिक सर्जन के माध्यम से हिंदी साहित्य को समृद्ध करती रहें।
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय

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