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24 Dec 2024 · 1 min read

ज़िन्दगी की शाम ढलती चली गई !

ज़िन्दगी की शाम ढलती चली गई !
उम्मीदें हाथ से फिसलती चली गई !

ये वक़्त का कारवाँ रुका नही कभी,
शक्ल मजबूरियाँ बदलती चली गई !

पहुँची न हसरतें मंज़िले मक़सूस तक,
नाकामियाँ हमें निगलती चली गई !

ज़िम्मेवरियों की लत लगी इस क़दर,
आवारगी मेरी हाथ मलती चली गई !

कलतक थे जो अपने वो बेवफ़ा हुए,
दिल्लगी मेरी मुझे छलती चली गई !

कैनवास बनकर ताउम्र जीता रहा तू,
ज़िंदगी रंग अपनी बदलती चली गई !

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