मैं बग़ैर आंसुओं के भी रोता रहा।।
ये सावन महीना, ये गहरी सी रातें।
ये हल्की सी बारिश, ये रंगों का मौसम।।
इसमें पलकों को अपने मैं धोता रहा।
मैं बग़ैर आंसुओं के भी रोता रहा।।
फट गया था कलेजा, जिन्दा था मैं।
पहले मुर्दा बना, फिर मर भी गया।।
बाद उसके भी तू याद आता रहा।
मैं बग़ैर आंसुओं के भी रोता रहा।।
भर गया था ये दिल, ज़ख्मों से मेरा।
पलकों को लहू से भिगोता रहा।
मैं बग़ैर आंसुओं के भी रोता रहा।
मैं बग़ैर आंसुओं के भी रोता रहा।।
आंखें नम थीं मेरी, था मैं टूटा हुआ।
कह तो सकता नहीं, फिर भी कहता हूं मैं।।
है हकीकत कि, तुझपे ही मरता रहा।
मैं बग़ैर आंसुओं के भी रोता रहा।।
विवेक शाश्वत…