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5 Dec 2024 · 1 min read

दोहा पंचक. . . . शृंगार रस

दोहा पंचक. . . . शृंगार रस

हुआ द्वार की ओट से, जब उनका दीदार ।
धक से यह दिल रह गया, देख स्वप्न साकार ।।

अक्सर उनसे नित्य ही, होता स्वप्न मिलाप।
मिटता मन के व्योम का, मिलन क्षुधा संताप ।।

कहाँ हकीकत में कभी , स्वप्न मिलें साकार ।
पलक लोक की कल्पना, करे यहाँ शृंगार ।।

वातायन के पट खुले , हुआ नयन अभिसार ।
मिलने की करने लगे, तृषित अधर मनुहार ।।

किया गगन का साँझ ने , अलबेला शृंगार ।
लहर – लहर पर लालिमा, करे प्रेम गुँजार ।।

सुशील सरना / 5-12-24

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