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26 Nov 2024 · 1 min read

पूँजीवाद का साँप

कल कोई सर्दी से काँपा रातभर,
कल किसी पर धन बरसता ही रहा ।

मिल गया एक को, जो थी चाहत उसे,
कोई इक रोटी को तरसता ही रहा ।

गेंद-बल्ले की कीमत लगी लाखों में,
पर किसानों का गेंहू तो सस्ता ही रहा ।

अर्द्ध नंगा, फटी हालत, देखकर,
बुर्जुआ सर्वहारा पे हँसता ही रहा ।

पूँजीवादी के कहने से चलता जो ‘साँप’,
वो बेचारे ग़रीबों को डसता ही रहा ।

— सूर्या

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