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18 Nov 2024 · 1 min read

तुम क्या जानो किस दौर से गुज़र रहा हूँ – डी. के. निवातिया

तुम क्या जानो किस दौर से गुज़र रहा हूँ,
डाली से टूटे फूल की तरह बिखर रहा हूँ !

ख़ाक से उठकर निखरने की कोशिश में,
जर्रा-जर्रा जोड़कर फिर से संवर रहा हूँ !

दर्द-ओ-ग़म के ज्वार भाटे डूबा कई दफा,
वक़्त की लहरों संग धीरे धीरे उबर रहा हूँ !

वक्त और हालातों ने गिराया पग-पग पर,
गिर-गिरकर हर एक बार मैं उभर रहा हूँ !

घटता हूँ, कभी बढ़ता हूँ, सुबह-शाम सा मैं,
पारे की तरह से आजकल चढ़ उतर रहा हूँ !

सीख लिया ज़माने की ताल से ताल मिलाना,
खुद को भी अब लगने लगा की सुधर रहा हूँ !!

___डी. के. निवातिया ___

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