“परिस्थिति का चक्रव्यूह बनाम आलोक”
कभी सुख की धूप कभी गम की छाँव,
परिस्थिति चक्रव्यूह का ये कैसा है गाँव?
पल में हँसाए पल में रुलाए,
जीवन की नैया कहाँ ले जाए?
राहों में काँटे सपनों में धुंध,
हर कदम पर निराशा जैसे हो बंध।
आँखों में आँसू दिल में है शोर,
उम्मीद की लौ भी लगती है कमजोर।
कोशिशें नाकाम सपने हैं टूटे,
हर मोड़ पर लगते अपने ही रूठे।
विश्वास की डोर भी जाती है छूट,
हर कदम पर निराशा लेती है लूट।
अँधेरे की चादर ओढ़े है मन,
उजाले की किरण भी करती है दमन।
हर कोशिश बेकार हर आशा व्यर्थ,
निराशा का सागर कितना समर्थ।
गिरे हुए पत्ते सूखी सी डाल,
हर तरफ दिखती बस बदहाली की चाल।
उठने की हिम्मत भी होती है कम,
निराशा का साया हर पल है नम।
खुद से ही रूठा खुद से ही हारा,
जैसे टूटा हो कोई चमकता तारा।
“लेकिन,”
अंधकार की चादर जब जाती है सिमट,
आलोक का होता मधुर सा प्रकटन।
किरणों का स्पर्श धरती को छूता,
नया सवेरा हर मन को लुभाता।
तम के घेरे को चीरता प्रकाश,
आशा की ज्योति करती है विलास।
फूलों की कलियाँ खिलती हैं फिर से,
पंछियों के स्वर गूँजते हैं हर्ष से।
आलोक में दिखता जीवन का सार,
सत्य की राह पर बढ़ता है प्यार।
ज्ञान का प्रकाश अज्ञान मिटाता,
मन के अँधेरे को दूर भगाता।
आलोक की आभा फैलाती है शांति,
हृदय में भरती प्रेम की कांति।
सृष्टि का कण-कण जगमगा उठता,
आलोक में जीवन फिर से खिल उठता।
हर ओर उजाला हर मन में उमंग,
आलोक का स्वागत होता है सतरंग।
तम से प्रकाश की यह अद्भुत यात्रा,
आलोक यही है जीवन की गाथा।
स्वरचित एवं मौलिक
आलोक पांडेय
गरोठ, मंदसौर, म.प्र.।