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18 Oct 2024 · 1 min read

sp51 युग के हर दौर में

युग के हर दौर में हर बार कलेवर है नया
आकर्षित करता है मन सदा जेवर है नया
यह हवा देती है हर बुझती हुई चिंगारी को
गीत हो या ग़ज़ल कविता का तेवर है नया

बन के श्रृंगार यह अंतस को हरा करती है
वियोग बन के यह नयनो को भिगा देती है
ओज के ज्वालामुखी से कभी बहता लावा
हास्य रस बनकर यह रोतों को हँसा देती है

मीरा बनकर जहर पीती है मानकर अमृत
सूर बनकर कभी वात्सल्य जगा देती है
बनती है भूषण ये अंगारों से खेला करती
तुलसी वन विश्व को यह राम कथा देती है

जिनके मन में है ललक चेतना जगाने की
उनसे माता की कृपा काव्य लिखा देती है
हस्ताक्षर बनते हैं वो काल कपाल पर भी
भारत के शौर्य का इतिहास लिखा देती है
@
डॉक्टर इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तव
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