प्रलय के स्वर

जन के मन में है हवस,
कैसे मिलेगा प्यार तब।
हो रहे,देखो!उज़ागर,
कुदरत के प्रहार अब।
निलय है गमगीन जैसे
वैसे गम में है धरा।
कह रही आहट डरी सी,
स्वर प्रलय के,सुन जरा।
सुत की आशा सुता लीले,
कोख कैसे रो रही।
भूर्ण हो पाए न पूरा,
जम के हत्या हो रही।
खेत व खलिहान मिटकर,
महल बनकर हैं खड़े।
छोड़ रोपण, विरवे वधकर
मनुज कितना कुछ गढ़े।
चांद को छेड़ा मनुज ने,
सूर्य को छोड़ा कहाँ अब?
सागर पर आगर बनाने
में कोई रोड़ा कहाँ अब?
हवा की घुटती हैं सांसे
जल भी जल में जल रहा।
पशू पक्षी अचल कानन,
सबको मानव छल रहा।
नदी पर हैं बांध बेढब,
पर्वत में सुरंग है।
सप्तरंगी रश्मि फीकी,
इंद्र धुनष बेरंग है।
इक बिमारी का है रोना,
शेष अब तक हर जगह।
सांस है ठिठकी खड़ी,
आंखे हैं गीली हर जगह।
कहाँ से हम चले थे,
और जा रहें किस ओर को।
ठहर थोड़ा, गौर से सुन,
प्रलय के उस शोर को।
अभी तो पहला चरण है,
कर लो सुंदर सी पहल।
आगे की सन्तति सुखी हो,
मिलकर कर डालो टहल।
सृजन कहता सृजन कर ले,
डर ले सृजनहार से।
नहीं सम्भले, तो मिटे सब,
प्रलय के प्रहार से।